________________
सचित्र जैन कथासागर भाग - २ राजन्! मुर्गे का वध करने वाले और उसकी प्रेरणा देने वाले हम दोनों की मृत्यु हो गई।
यह मेरा प्रथम भव है । कृत्रिम हिंसा भी कैसी अनर्थकारी है यह वृत्तान्त उसी का सूचक है।
अहो नु खलु नास्त्येव जीवघातेन शान्तिकम् । मूढवैद्यप्रयुक्तेन कुपथ्येनेव पाहवम् ।।१।। अशान्तिं प्राणिनां कृत्वा का स्वशान्तिकमिच्छति।
इभ्यानां लवणं दत्त्वा, किं कर्पूरं किलाप्यते?।।२।। मूर्ख वैद्य द्वारा बताये गये कुपथ्य से आरोग्य नहीं होता उसी प्रकार जीव-हिंसा से कदापि शान्ति नहीं होती। जीवों को अशान्ति करके कौन मूर्ख अपनी शान्ति की इच्छा करेगा? वणिक् को नमक देकर कर्पूर की इच्छा क्या कभी सफल होती है?