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________________ २७ दुःख की परम्परा अर्थात् दूसरा, तीसरा, चौथा भव (३७) दुःख की परम्परा अर्थात् दूसरा, तीसरा, चौथा भव राजन्! मैं यशोधर मर कर पुलिन्दगिरि पहाड़ के एक वन में मोरनी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। इस कुक्षि में मैंने गर्भावास के असह्य कष्ट सहे और तत्पश्चात् मेरा जन्म हुआ। मेरा वचपन समाप्त होने पर मैं युवा हुआ। मैं अत्यन्त सुन्दर था अतः किसी कोतवाल ने मुझे पकड़ा और मेरे पूर्व भव के पुत्र गुणधर राजा को उसने उपहार स्वरूप दे दिया। _ मेरी माता चन्द्रमती (यशोधरा) वहाँ से मर कर धान्यपुर नगर में एक कुतिया की कुक्षि से कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुई। यह कुत्ता भी डीलडौल तगड़ा और सुन्दर हुआ अतः उसके स्वामी ने घूमते-घूमते उसे भी मेरे पुत्र गुणधर को उपहार में दे दिया। राजन् मारिदत्त! मैं मोर और मेरी माता कुत्ती दोनों घूमते-घूमते पुनः अपने पूर्व के घर आये। पूर्व भव के स्नेह के कारण गुणधर को हमें देखते ही अत्यन्त उल्लास हुआ। जिस प्रकार जीव अपने माता-पिता की सुरक्षा करते हैं उसी प्रकार उसने हम दोनों की सुरक्षा की। हमारे लिए उसने स्वर्ण के आभूषण बनवाये, रहने के लिए सुन्दर स्थान दिया और भोजन के लिए उसने सदा हमारी देख-भाल की । कुत्ते के लिए उसने एक श्वान-पालक रखा और मेरे लिए भी उसने एक अलग सेवक नियुक्त किया। मैं यहाँ कभी महल की छत पर घूमता तो कभी राजा की राज्य-सभा में क्रीड़ा करता। इस प्रकार हम समय व्यतीत करने लगे। (२) एक यार मैं महल की ऊपरी मंजिल में घूम रहा था तब मेरी दृष्टि एक कक्ष में कुबड़े के साथ विषय-भोग करती नयनावली पर पड़ी। यह देखकर मैं विचार मे पड़ा कि मैंने इन दोनों को कहीं देखा है। इस विचार की गहराई में उतरने पर मुझे जातिस्मरणज्ञान हुआ। मैंने कुयड़े और नयनावली को पहचान लिया। मेरे नेत्रों में क्रोध
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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