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यशोधर चरित्र - अधुरी आशा अर्थात् यशोधर राजा मुझे छोड़ कर कहाँ चल दिये? अब मैं कैसे जीवित रहूँगी? प्राणनाथ! एक बार तो इस दासी को बुलाओ', यह कहती हुई पुनः पुनः सिसक-सिसक कर रोती हुई उसने मेरे गले को अंगूठे से दबाया । विष की पीड़ा से मेरे भीतर आग सी लग रही थी उसमें इस पीड़ा ने और वृद्धि की । मैं पीडा के कारण चीखता हुआ, क्रोध के कारण तमतमाता हुआ, जीवन के लिए लालायित और वैर में तड़पता हुआ भर गया। विचारे सरल प्रकृति के लोगों ने रानी के इस व्यवहार को मेरे प्रति अनन्य प्रेम समझा। कोई भी मनुष्य यह नहीं समझ सका कि मेरा प्राण लेने वाली मेरी रानी नयनावली है । मैं यह सव समझा परन्तु कह नहीं सका ! इस प्रकार द्वेष में जलते हुए मेरी मृत्यु हो गई।
तान्त्रिक एवं वैद्य आये तब तक तो मेरी आत्मा देह का परित्याग करके परलोक पहुँच चुकी थी। मेरे पीछे आये वे अत्यन्त रुदन करते रहे।
राजन्! मेरी संयम की भावना, राज्य-सिंहासन का त्याग करके गुरु की शरण मे रह कर पाद-विहार करते हुए विचरण करने की उत्कण्ठा, द्वार-द्वार घूम कर भिक्षा लाकर जीवन-निर्वाह करने की अभिलाषा और शत्रु-मित्र के प्रति समान दृष्टि रखने की लगन; यह सव एक ही पल में ध्वस्त हो गया और मैं उससे विपरीत दिशा में क्रोध, मोह, एवं द्वेष की तह में लिपटा जाता मानव भव खोकर अनेक भवों में भटका । राजन्! मुझे तो प्रतीत होता है कि यह सब प्रताप आटे के मुर्गे का वध करने का है। वह उग्र पाप तुरन्त मेरे उदय में आया और वर्षों तक जो त्रिया-चरित्र मुझे ज्ञात नहीं हुआ वह त्रिया-चरित्र उसी दिन ज्ञात हुआ जिसके द्वारा मेरी सम्पूर्ण विचारधारा में परिवर्तन हो गया। मैं अशरण वन कर मृत्यु का शिकार हुआ। मेरी आशा अपूर्ण रही। भयंकर अन्तराय कर्म के उदय से ये दो दिन मेरे ठीक व्यतीत नहीं हुए। मैं अचानक धुरी मौत मरा । मेरी कुमौत हुई, जो स्वप्न में मैंने स्वयं को सातवीं मंजिल पर चढ़ा हुआ
और वहाँ से गिरा हुआ देखा था, वह स्वप्न सच्चा निकला क्योंकि मैं संयम-भाव से सातवीं मंजिल पर चढ़ा भी सही और आटे के मुर्गे की हत्या से मैं सातवीं मंजिल से गिरा भी सही। यह सातवीं मंजिल से मेरा अधःपतन हुआ वह मुर्गे की हिंसा करने के कारण हुआ। स्नेही माता ने इस दुःस्वप्न को टालने के लिए मुर्गे की हिंसा करवाई, परन्तु वास्तव में उक्त हिंसा दुःस्वप्न टालने के लिए कारणरूप नहीं बनी इसके विपरीत उसने उस दुःस्वप्न को फलदायी वनाया। कीचड़ कदापि शुद्धि करता है? उसी प्रकार हिंसा कभी अमंगल को टालती है? वह तो अमंगल की वृद्धि करती है। उसी प्रकार मेरे जीवन में उस वलिदान ने अमंगल की वृद्धि करके मुझे संसार में डुबाया।
मेरी माता के मेरे पास आने से पूर्व तो मेरी मृत्यु हो गई थी। वह मेरी मृत्यु देख नहीं सकी। मुझे देखते ही उसके हृदय पर भयंकर आघात हुआ और जिस स्थान पर मेरी मृत्यु हुई थी उसी स्थान पर मेरा दुःख देख कर उसकी भी मृत्यु हो गई।