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शिखरों का निर्माण गुप्त युग से पहले होने लगा था। ज्ञात होता है कि मंदिर के वास्तु में दोनों प्रकार मान्य थे। एक शिखर युक्त गर्म गृह या मंडप या और दूसरे शिस्त्रर विहीन चौरस छत वाले सादा मंदिर जैसे सांची
और मालवा के मुकन्दरा प्रादि स्थानों में मिले हैं। इस प्रकार के मंदिरों के विकास का पूर्वरूप कुषाण कालीन . गन्ध कूटी में प्राप्त होता है, जिसमें तीन खड़े पत्थरों को चौरस पत्थर से पाट कर उसके भीतर बुद्ध या बोधिसत्व की प्रतिमा स्थापित कर दी जाती थी। कालान्तर में तो शिखर मंदिरों का अनिवार्य अंग बनगया और उसकी शोभा एवं रूप विधान में प्रत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा। मंदिर के गर्भ गृह में खड़ी हई या बैठो हुई देव प्रतिमा की ऊंचाई कितनी हो और उसका दृष्टि सूत्र कितना ऊंचा रक्खा जाय इसके विषय में द्वार की ऊंचाई के अनुसार निर्णय किया जाता था। जैसे एक विकल्प यह था कि द्वार की ऊंचाई के पाठ या नव भोग करके, एक भाग छोड़कर शेष ऊंचाई के तीन भाग करके उनमें से दो के बराबर मूर्ति की ऊंचाई रखनी चाहिए।
मंदिर के शिखर की रचना अत्यन्त जटिल विषय है । मंडोवर के छज्जे के ऊपर दो एक थर और लगाकर तब शिखर का प्रारम्भ करते हैं । वास्तुसार में इन घरों के नाम बेराडु और पहार कहे हैं (वास्तुसार पृ.११०)। किन्तु मंडन ने केवल पहार नामक घर का उल्लेख किया है । शिखर के उठते हुए विन्यास में शगों की रचना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। मंडोवर की विभिन्न फालनामों की ऊंचाइ स्कन्ध के बाद जब शिखर में उठती है तो कोरण, प्रतिरथ पीर रथ ग्रादि की सीध में शग बनाये जाते हैं। इन्हीं शृगों के द्वारा शिखर का ठाठ जटिल और सुन्दर हो जाता है। बीच के शिखर को यदि हम एक इकाई मानें तो उसको चारों दिशाओं में चार उरु शग बनाये जा सकते हैं । ये शृंग भी शिखर को प्राकृति के होते हैं। यदि मूल शिखर का सामने से दर्शन किया जाय तो वही प्राकृति शुग की होती है । प्रासाद के शिखर का सम्मुख दर्शन ही शग है। मूल शिखर और उसके चारों ओर के चार शग इस प्रकार कुल ५ शग पुक्तरूप प्रासाद का एक सीधा प्रकार हमा। बीच के शिखर को मूलमंजरी और चारों ओर के मूलभूत बड़े शृगों को उरु श्रृंग कहते हैं। इसी के लिए राजस्थानी और गुजराती स्थपतियों में छातियाश्रंग शब्द भी प्रचलित है | वस्तुत: श्रृंग और शिखर पर्यायवाची हैं। ठक्क र फेरू ने उरुश्रुग या छातिया श्रृंग को " उर सिहर (=उरु शिखर) कहा है । मूलमंजी के चार भद्र या पावों में चार उरुश्रुगों के अतिरिक्त प्रोर भी अनेक श्रृग बनाये जाते थे। सूत्रधार मंडन ने कहा है कि उरुश्रंगों की संख्या प्रत्येक भद्र में एक से नत्र तक हो सकती है (४/१०) । सबसे बड़ा उरुश्रुग शिखर की कितनी ऊंचाई तक रक्खा जाय इसका भी नियम दिया गया है। शिखर के खदय के १३ भाग करके नीचे से सात भाग तक पहला छातिया श्रृंग बनाया जाता है। अर्थात् शिखर की ऊंचाई के सात भाग पहले उरु श्रृंग के नीचे छिप जाते हैं। अब इस उरुश्रुग पर दूसरा उरुश्रुग बैठाना हो तो फिर इसकी ऊंचाई के तेरह भाग करके सात भाग तक के उदय तक दूसरा श्रृग बनाया जाता है । इस प्रकार जिस शिखर में नव उरुश्रुग रखने हों उसकी ऊंचाई सोच विचार कर उसी अनुपात से निश्चित करनी होगी। शिखर में गोलाई लाने या ढलान देने के लिए प्रावश्यक है कि यदि उसके मूल में दस भाग हों तो अग्र स्थान या सिरे पर छः भाग का अनुपात रखना चाहिये । इस अनुपात से शिखर सुहावना प्रतीत होता है। गर्भ गृह की मूलरेखा या चौड़ाई से शिखर का उदय सवाया रक्खा जाता है। शिखर के वलण अर्थात् नमन की युक्ति साधने के लिए उसके उदय भाग और स्कन्ध में क्रमश: रेखाओं और कलाओं की सूक्ष्म गणना स्थपति सम्प्रदाय में प्रचलित है । उस विषय का संक्षिप्त संकेत मंडन ने किया है । रेखाओं और कलात्रों का यह विषय अपराजित पृच्छा (प्र. १३६-१४१) में भी पाया है। खेद है कि यह विषय अभी तक सष्ट न होने से इस पर अधिक प्रकाश डालना सम्भव नहीं।