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मंडन का कथन है कि खरशिला से कलश तक बीस भाग करके पाठ या ८१ या ह भाग में मंडोवर को ऊंचाई और शेष में शिखर का उदय रक्खा जाता है । शिखर के गूमट नुमा उठान को पद्मकोष कहा जाता है (४/२३) । पद्मकोष की प्राकृति लाने के लिये मंडन ने अति संक्षिप्त रीति से एक युक्ति कही है (चतुर्गऐन सूत्रेण सादः शिखरोदयः (४।२३) । इसके अनुसार शिखर की मूलरेखा से चौगुना सूत्र लेकर यदि नये प्राप्त दोनों बिन्दुओं को केन्द्र मानकर गोल रेखायें खोंची जाय तो जहां वे एक दूसरे को काटती हों वह शिखर का अंतिम बिन्दु हुमा । शिखर की मूल रेखा से उसकी (मूल रेखा की) सवाई जितनी ऊंचाई पर एक रेखा खींची जायं तो वह शिखर का स्कन्ध स्थान होगा। इस स्कन्ध और पद्म कोश के अंतिम बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करके एक भाग में प्रीवा, १३ भाग में प्रामलक शिला, १ भाग में पद्म पत्र (जिन्हें प्राजकल लीलोफर कहते हैं), और तीन भाग में कलश का मान रहेगा।
शिखर में शुकनास का भी महत्वपूर्ण स्थान है। शुकनास को ऊंचाई के पांच विकल्प कहें हैं। अथात् छज्जे से स्कन्ध तक के उदय को जव इक्कीस भामों में बांटा जाय तो ६, १०, ११, १२, १३, अंशों तक कहीं भी शुकनास का उच्छ किया जा सकता है। शुकनासिका उदय के पुनः न भाग करके १, ३, ५, ७ या भागों में कहीं पर भी झम्पासिंह रखना चाहिये । शुकनासा, प्रासाद या देव मंदिर की नासिका के समात है। शिखर में शुकनासिका का निकलता खाता नीचे के अंतराल मण्डप के अनुसार बनाया जाता है । अंतराल मण्डप को कपिली या कोली मण्डप भी कहते हैं। (४१२८) अन्तराल मंडप की गहराई छः प्रकार की बताई गई है। शिखर की रचना में श्रग, उरुश्रंग (छातिया श्रग), प्रत्यंग और अएडकों का महत्वपूर्ण स्थान है। एवं भिन्न भिन्न प्रकार के शिवरों के लिए उनको गणना प्रग २ को जातो है। इसी प्रकार तवंग, तिलक पोर सिंहकर्ण ये भी प्रकारान्तर के अलंकरण हैं जिन्हें प्रासाद के शिखर का भूषण कहा जाता है और इनकी रचना भी शिखर को विभिन्नता प्रदान करती है।
मंडन के अनुसार प्रासाद के शिखर पर एक हिरण्यमय प्रासाद पुरुष की स्थापना की जाती है । कलश, दण्ड, और ध्वजारोपण के संबंध में भी विवरण पाया जाता है।
पांचवें-छठे अध्यायों में राज्य आदि पच्चीस प्रकार के प्रासादों के लक्षण कहे गए हैं। गर्भ गृह के कोण से कोण तक प्रासाद के विस्तार के ४ से ११२ तक अ.वश्यकतानुसार भाग किए जा सकते हैं और उन्हीं भागों के अनुसार फालनामों के अनेक भेद किए जाते हैं। प्रासादों के नाम और जातियां उनके शिखरों के अनुसार कही गई हैं। वस्तुत: इन भेदों के प्राधार पर प्रासादों की सहस्रों जातियां कल्पित की जाती हैं। गर्भ गृह, प्रासाद भित्ति, भ्रमरगी या परिक्रमा और परिक्रमा-भित्ति यह प्रासाद का विन्यास है। इनमें प्रासाद भित्ति, परिक्रमा और परिक्रमा भित्ति तीनों की चौड़ाई समान होती है। यदि दो हाथ को प्रासाद भित्ति, दो हाथ की परिक्रमा और दो हाथ की भ्रम भित्ति करें तो गर्भगृह चार हाथ का होना चाहिए। परिक्रमा युक्त प्रासाद दस हाथ से कम का बनाना ठीक नहीं । प्रासादों के वैराज्य आदि पच्चीस भेद नागर जाति के कहे जाते हैं। छठे अध्याय में विशेषत: शिखरों के अनेक भेदापभेदों की व्याख्या करते हुए केसरी प्रादि प्रासादों का निरूपण किया गया है। प्रयोगात्मक दृष्टि से यह विषय अत्यधिक विस्तार को प्राप्त हो गया था। यहां तक कि मेक--प्रासाद में ५०१ श्रृगक बनाए जाते थे । वृषभध्वज नामक मेरु में एक-सहस्र एक अण्डक कहे गये हैं । मेरु प्रासाद बहु व्यर साध्य होने से केवल राजकीय निर्माण का विषय समझा जाता था।