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प्रकार के द्वार बनते रहे ! शनैः शनै: मध्यकालीन मंदिरों में द्वार निमारण कला में कुछ विकास और परिवर्तन भी हुना। मंडन के अनुस र उदुम्बर या दे हली की चौड़ाई के तीन भाग करके बीच में मन्दारक और दोनो पावों में ग्रास या सिंहमुख बनाने चाहिए । मन्दारक के लिए प्राचीन शब्द सन्तानक भी था (प्रग्रेजी फेस्टून) । गोल सन्तानक में पद्मपत्रों से युक्त मृणाल की प्राकृति उकेरी जाती थी। ग्रास या सिंह मुख को कीर्तिवक्त्र या कीर्तिमुख भी कहते थे । देहली के दोनों पोर के पार्श्व स्तम्भों के नीचे तलरूपक (हिन्दी-तलका) नाम के दो अलंकरण बनाये जाते हैं। तलकड़ों के बीच में देहली के सामने की योर बीच के दो भागों में अर्धचन्द्र और उसके दोनों ओर एक-एक गगारा बनाया जाता है। गगारो के पास में शंखों की और पद्मपत्र की उत्कीर्ण की जाती हैं। द्वार को यह विशेषता गुप्त युग से ही प्रारम्भ हो गई थी, जैसा कालिदास ने मेघदूस में वर्णन किया है (द्वारोपान्ते लिखित वपुषौ शंखपद्मौ च दृष्ट्वा, उत्तर मेघ १७) । गगारक या गगारा शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है । यहां पृष्ट ५६ और वास्तुसार में पृ० १४० पर गगारक का चित्र दिया गया है। द्वार की ऊंचाई से उसकी चौड़ाई आधी होनी चाहिए । और यदि चोड़ाई में एक कला या सोलहवां अंश बढ़ा दिया जाय तो द्वार की शोभा कुछ अधिक हो जाती है । द्वार के उत्तरंग या सिरदल भाग में उस देव की मूर्ति बनानी चाहिए जिसको गर्भगृह में प्रतिष्ठा हो। इस नियम का पालन प्रायः सभी मंदीरों में पाया जाता है । इस मूर्ति ललाट-बिम्ब भी कहते थे। द्वार के दोनो पावं स्तम्भों में कई फालना या भाग बनाये जाते थे जिन्हें संस्कृत में शाखा कहा गया है । इस प्रकार एक शाख, त्रिशाख, पंच शाख, सप्त शाख, और नव शाख तक के पाव स्तम्भ युक्त द्वार बनाये जाते थे । इन्ही के लिए तिसाही, पंचसाही आदि शब्द हिन्दी में अभी तक प्रचलित हैं। सूत्र धार मंडन ने एक नियम यह बताया है कि गर्भगृह की दिवार में जितनी फालना या अंग बनाये जांय उतनी ही द्वार के पार्श्व स्तम्भ में शाखा रखनी चाहिए ( शाखा: स्युरंगतुल्यका: ३.५६) । द्वार स्तम्भ की सजावट के लिए कई प्रकार के अलंकरण प्रयुक्त किये जाते थे। उनमें रूप या स्त्री पुरुषों की मूर्तियां मुख्य थीं। जिस भाग में ये प्राकृतियां उकेरी जाती थी उसे रूप स्तम्भ या प शाखा कहते थे । पुरुष संज्ञक और स्त्री संज्ञक शाखामों का उल्लेख मण्डन ने किया है। इस प्रकार की शाखाये गुप्तकालीन मंदिर द्वारों पर, भी मीलती हैं। अलंकरणों के अनुसार इन शाखामों के और नाम भी मिलते हैं जैसे-परशाखा, सिंह शाखा, गन्धर्व शाखा, खल्व शाखा प्रादि । खल्व शाखा पर जो प्रलं करण बनाया जाता था वह मटर आदि के बेलों के उठते हुए गोल प्रतानों के सदृश होता था। प्राबू के विमल वसही प्रादि मंदिरों में तथा अन्यत्र भी इसके उदाहरण हैं। खल्व शब्द प्राचीन था और उसका अर्थ फलिनीलता या मटर प्रादि की बेल के लिए प्रयुक्त होता था।
प्रासाद मंडन के चौथे अध्याय में प्रारम्भ में प्रतिमा की ऊंचाई बताते हए फिर शिखर निर्माण का ब्योरे वार वर्णन किया गया है। देव प्रासादों के निर्माण में शिखरों का महत्वपूर्ण स्थान था । मंदिर के वास्तु में नाना प्रकार के शिखरों का विकास देखा जाता है । शिखरों की अनेक जातिया शिल्प ग्रन्थों में कही गई हैं। वास्तविक प्रासाद शिखरों के साथ उन्हें मिलाकर अभी तक कोई अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है । बाण ने सातवीं शती में बहभूमिक शिखरों का उल्लेख किया है। भारम्भिवः:प्त काल में बने हुए सांची के छोटे देव मंदिर में कोई शिखर नही है । देवगढ़ के दशावतार मंदिर में शिखर के भीतर का ढोला विद्यमान है। वह इस बात का साक्षी है कि उस मंदिर पर भी शिखर की रचना को गई थी। शिखर का प्रारम्भ किस रूप में और कब हुमा यह विषय अनुसंधान के योग्य है। पंजाब में मिले हए उदुम्बर जनपद के सिक्कों पर उपलब्ध देवप्रासाद के ऊपर त्रिमूमिक शिखर का स्पष्ट अंकन पाया जाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि