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________________ लिए भी जगतो के ऊपर ही गुजायश रखी जाती है । जगती के निर्माण में चार, बारह, बीस, अठाइस, या छत्तीस कोण युक्त फलनामों का निर्माण सूत्रधार मण्डन के समय तक होने लगा था। जगती कितनी ऊंची हो और उसमें कितने प्रकार के गलते-गोले बनाए जाय इसके विषय में मण्डन का कयन है कि जगती की ऊंचाई के अट्ठाइस पद या भाग करके उपमें तीन पद का जाड्यभ या जाडूमा, दो पद की कमी, तीन पद का दासा जो पद्मपत्र से युक्त हो, दो पद का खुरक, उसके ऊपर सात भाग का कुम्भ, फिर तीन पद का कलश, एक भाग का अंतपत्रक, तीन भाग की कपोताली या वेवाल, चार भाग का पुष्प करठ या अंतराल होना चाहिए । जगती के चारों ओर प्राकार या दीवार और चार द्वार-मण्डप, जल निकलने के लिए मकराकृति प्रणाल, सोपान और तोरण भी इच्छानुसार बनाए जा सकते हैं। मण्डप के सामने जो प्रतोली या प्रवेशद्वार हो उसके पागे सोपान में शुशिदकाकृति हथिनी बनाई जाती है। तोरण की चौड़ाई गर्भ गृह के पदों की नाप के बराबर और ऊचाई मन्दिर के भारपट्टों की ऊंचाई के अनुसार रक्खी जाती है । तोरण मन्दिर का विशेष अंश माना जाता था और उसे भी जगती और उसके ऊपर पीठ देकर ऊंचा बनाया जाता था। तोरण की रचना में नाना प्रकार के रूप या मूर्तियों की शोभा बनाई जाती थी। तोरण कई प्रकार के होते थे। जैसे घटाला तोरण, तलक तोरण, हिण्डोला तोरण आदि । प्रासाद के सामने वाहन के लिए चौकी (चतुष्किका) रक्सी जाती थी। देव मन्दिर में वाहन के निर्माता के भी विशेष नियम थे ! वाहन की ऊंचाई गभारे की मुर्ति के गुह्मस्थान, नाभिस्थान या स्तन रेखा तक रखी जा सकती है। शिखर के जिस भाग पर सिंह की मूर्ति बनाई जाती है उसे शुक्रनासिका कहते थे । उस सूत्र से आगे गूढमण्डप, गूढमण्डप से आगे चौकी और उससे अागे नृत्यमण्डप को रचना होती है। मण्डपों की संख्या जितनी भी हो सबका विन्यास गर्भगृह के मध्यवर्ती सूत्र से नियमित होता है। मंदिर के द्वार के पास त्रिशाला या पलिद या बलाक ( द्वार के ऊपर का मंडप) बनाया जाता . है। पन्द्रहवीं शती में मंदीरों का विस्तार बहुत बढ़ गया था और उसके एक भाग में रथ यात्रा वाला बड़ा रथ रखने के लिए रथ शाला और दुसरे भाग में छात्रों के निवास के लिब मठ का निर्माण भी होने लगा था। तीसरे अध्याय में प्राचार शिला, प्रासाद पोठ, पीठ के ऊपर मंडोवर और मंदिर के द्वार के निर्माण का विस्तृत वर्णन है। प्रसाद के मूल में नौंव तैयार करने के लिए कंकरीट ( इष्ट का चूर्ण) की पानी के साथ खूद कुटाई करनी चाहिए । इसके ऊपर खूब मोटी और लम्बी चौड़ी प्रासाद धारिणी शिला या पत्थर का फर्श बनाया जाता है । इसे ही खुर शिला या खर शिला भी कहते हैं। इस शिला के ऊपर जैसा भी प्रासाद बनाना हो उसके अनुरूप सर्व प्रथम जगती या अधिष्ठान बनाया जाता है जिसका उल्लेख पहले हमा है । यदि विशेष रूप से जगती का निर्माण संभव न हो तो भी पत्थर की शिलाओं के तीन थर एक के ऊपर एक रखने चाहिए । इन थरों को भिह कहा जाता था। नोचे का भिह दूसरे की अपेक्षा कुछ मोटा और दूसरा तीसरे से कुछ मोटा रक्खा जाता था। भिह जितना ऊंचा हो उसका चौथाई निगम या निकास किया जाता था। भिह या जगती के ऊपर प्रासाद पीठ का निर्माण होता है । प्रासाद-पीठ और जगली का भेद स्पष्ट समझ लेना चाहिए । जगनी के ऊपर मध्य में बनाए जाने वाले गर्भ गृह या मंडोवर की कुर्सी की संज्ञा प्रासाद पीठ है । इस पीठ की जितनी ऊंचाई होती है उसी के बराबर गर्भ गृह का फर्श रक्खा जाता है । प्रासाद पीठ के निर्माण के लिए भी गोले-गलनों का या विभिन्न थरों का विधान है। जैसे नौ अंश का जय कुभ,
SR No.008426
Book TitlePrasad Mandana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1986
Total Pages290
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size6 MB
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