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(१०) जिस दिन गर्भ गृह के शिखर के लगभग बीच में शकनासा या नासिका की ऊंचाई तक पहुंच कर झंपा सिंह की स्थापना की जाय; (११) जिस दिन शिखर पर हिरण्यमय प्रासाद-पुरुष की स्थापना की जाय; (१२) जिस दिन घएटा या गूमट पर आमलक रकवा जाय; (१३) जिस दिन मामलसार शिला के ऊपर कलश की स्थापना की जाय; (१४) और जिस दिन कलश के बराबर मंदिर पर ध्वजा रोपण किया जाय । इनमें संख्या २ और संख्या ३ को कुछ लोग अलग मानते हैं किन्तु यदि कूर्मशिला को एक ही पद माना जाय तो उनकी सूची में केवल १३ शान्ति कर्म होते हैं और तब चौदहवां शान्तिक देव-प्रतिष्ठा के अवसर पर करना प्रावश्यक होगा (११३७-३८) ।
प्रासाद के गर्भ गृह की माप एक हाथ से पवाम हाथ तक कही गई है। कुभक या जाड्य-कुभ या जाडूमा का निकास इसके अतिरिक्त गर्भ गृह की भित्ति के बाहर होना चाहिए 1 जाड्याभ आदि विभिन्न थरों का निर्गम तथा पीठ एवं छज्जे के जो निर्गम हों उन्हें भी सम सूत्र के बाहर समझना चाहिए। गर्भगृह समरेखा में चौरस भी हो सकता है, किन्तु उसी में फालना या खांचे देकर प्रासाद में तीन-पांच सात या नौ विभाग किए जा सकते हैं। इसका प्राशय यह है कि यदि प्रासाद के गर्भगृह की लम्बाई माठ हाथ है तो दोनों ओर दो-दो हाथ के कोण भाग रख कर बीच में चार हाथ की भित्ति को खांचा देकर थोड़ा आगे निकाल दिया जा सकता है। इस प्रकार का प्रासाद तीन अंगों वाला या उड़ीसा की शब्दावली में त्रिरथ प्रासाद कहा जायगा । इसी प्रकार दो कोण, दो खांचे और एक भित्तिरथ वाला प्रासाद पंचरथ प्रासाद होता है। दो कोगा, दो-दो उपरय और एक रथ युक्त प्रासाद सप्तांग, एवं दो कोण चार-चार उपरथ एवं एक रथिका युक्त प्रासाद नयांग या दवरथ प्रासाद कहलाता है (११४१) । इन फालनामों या खांचों के अनुसार ही प्रासाद का सम्पूर्ण उत्सेध या उदय खड़ा किया जाता है । अतएव प्रासाद रचनाओं में फालनामों का सर्वाधिक महत्त्व है। खुर-शिला से लेकर शिखर के ऊपरी भाग तक जितने थर एक के ऊपर एक उठते चले जाते हैं उन सबका विभाग इन्हीं फालनामों के अनुसार देखा जाता है। प्रासाद के एक-एक पार्श्वको उसका भद्र कहते हैं। प्रत्येक भद्र की विविध कल्पना कोण, प्रतिभद्र और बीच बाले भद्रांश पर ही निर्भर रहती है। प्रासाद की ऊंचाई में जहां-जहाँ फालनामों के जोड़ मिलते हैं वही ऊपर से नीचे तक बरसाती पानी के बहाव के लिए बारीक नालियां काट दी जाती हैं जिन्हें वारि मार्ग या सलिनान्तर कहते हैं । भद्र, फालना (प्रतिभद्र ) और कर्ण या कोण की सामान्य माप के विषय में यह नियम बरता जाता है कि भद्र चार हाथ का होतो दोनों पोर के प्रतिभद्र या प्रतिरथ दो-दो हाथ के और दोनों कर्ण या कोण भी दो हाथ लम्बे रक्खे जाते हैं अर्थात् कर्ण और फालना से भद्र को लम्बाई दुगुनी होती है।
प्रासाद मण्डन के दुसरे अध्याय में जगती, तोरस और देवता के स्थापन में दिशा के नियम का विशेष उल्लेख है, प्रासाद के अधिष्ठान को संज्ञा जगती है। जैसे राजा के लिए जगती की शोभा कही गई है। प्रासाद के अनरूप पांच प्रकार को जगती होती है-चतरस्त्र (चौरस ). प्रायत ( लम्त चौ अष्टास (अस या अठकोनी), वृत्त (गोल ) और वृत्तायत (लम्ब गोल, जिसका एक शिरा गोल और दूसरा प्रायत होता है, इसे ही द्वयन या वेसर कहते हैं)। ज्येष्ठ मध्य और कनीयसी तीन प्रकार की जगती कहीं गई है। जगती की ऊंचाई और लम्बाई को नाप प्रासाद के अनुसार स्थपति को निश्चित करनी चाहिए, जिसका उल्लेख ग्रंथकार ने किया है। प्रासाद की चौड़ाई से तिगुनी चौगुनी या पांचगुनी तक चौड़ी और मण्डप से सवाई ढ़योढ़ी या दूनी लम्बी तक जगती का विधान है । जगती के ऊपर ही प्रासाद का निर्माण किया जाता है अतएव यदि प्रासाद में एक, दो या तीन भ्रमणी या प्रदक्षिणापथ रखने हों तो उनके