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________________ अर्थात् समस्त सृष्टि का जो एक मादि करता है, जिससे श्रेष्ठ पौर कुछ नहीं है, ऐने उस एक तत्व को ही तत्ववेता अनेक पर्यायवाची शब्दों से कहते है। इस सुन्दर दृष्टिकोण के कारण समन्वय पोर सम्प्रीति के धर्माम्बु मेघ भारतीय महाप्रजा के उपर उस समय भिवष्ट हुए जब देव प्रासादों के रूप में संस्कृति का नूतन विकास हुआ। बौद्ध, जैन और हिन्दू मंदिरों में पारस्परिक स्पर्धा या तनाव की स्थिति न थी। किन्तु वे सब एक ही धार्मिक प्रेरणा और स्फूर्ति को मूर्तरूप दे रहे ये गुप्त कालीन भागवती संस्कृति का यह विशाल नेत्र था जिसके द्वारा प्रजाएं अपने-अपने इष्टदेव का अभिलषित दर्शन प्राप्त कर रही थीं । मानवी देह के साथ प्रत्यक्ष फल यह हुप्रा कि देवालय अंग-प्रत्यंग हैं उन्हीं के अनुसार देव यज्ञः' अर्थात् 'जैसा पुरुष वैसा ही देव तत्व के जिस घनिष्ठ संबंध का उल्लेख ऊपर किया गया है उसका दूसरा की कल्पना भी मानुषी देह के अनुसार ही की गई। मानुषी शरीर के जो मंदिरों के मूर्तरूप का विज्ञान निश्चित हुआ । किसी समय 'पुरुषविवो वे यज्ञ का स्वरूप' यह सिद्धान्त मान्य था । उसी को ग्रहण करते हुए 'पुरुष विषो वै प्रासादः मर्थात् जैसा पुरुष जैसा ही देव मन्दिर का वास्वरूप यह नया सिद्धान्त मान्य हुआ । पाद, खुर, जङ्घा, गर्भगृह, मंडोवर, स्कंध, शिखर, ग्रीवा, नासिका, मस्तक, शिखा आदि प्रासाद संबन्धी शब्दावली से मनुष्य और प्रासाद की पारस्परिक अनुकृति सूचित होती है। देव - प्रासादों के निर्माण की तीसरी विशेषता यह थी कि समाज में कर्मकाण्ड की जो गहरी धार्मिक भावना थी वह देव पूजा या अर्चा के रूप में ढल गई । प्रत्येक मन्दिर उस-उस क्षेत्र के लिए धर्म का मूर्त रूप समझा गया। भगवान विष्णु अथवा अन्य देव का जो विशिष्ट सौन्र्स था उसे ही उस उस स्थान को प्रजाएं अपने अपने देवालयों में मूर्त करने का प्रयत्न करती थीं । दिव्य प्रमुतं सौन्दर्य को मूर्त रूप में प्रत्यक्ष करने का सबल प्रयत्न दिखाई दिया । सुन्दर मूर्ति और मन्दिरों के रूप में ऐसा प्रतिभासित होता था कि मानों स्वर्ग के सौन्दर्य को पृथिवी के मानव साक्षात् देख रहे हों। जन समुदाय की सम्मिलित शक्ति और राजशक्ति दोनों का सदुपयोग अनेक सुन्दर देव मन्दिरों के निर्माण में किया गया । यह धार्मिक भावना उत्तरोत्तर बढ़ती गई और एक युग ऐसा पाया जब प्रतापी राष्ट्रकूट जैसे सम्राटों का वैभव ऐलोरा के कैलाश सहरा देव मन्दिरों में प्रत्यक्ष समझा जाने लगा। एक-एक मंदिरमानों एक एक सम्राट के सर्वाधिक उत्कर्ष और समृद्धि का प्रकट रूप था जब लोक में इस प्रकार की भावना सिद्ध हुई तभी मध्यकाल में उस प्रकार के विशाल मंदिर बन सके जिनका वन समरांगण सूत्रधार एवं अपराजित पृच्छा ऐते ग्रंथों में पाया जाता है उन्हीं के वास्तु शिल्प की परम्परों सूत्रधार मण्डन के ग्रंथ में भी पाई जाती है। मंदिर या प्रासाद को देवता का प्रावास माना गया। तब वह कल्पना हुई कि देवता के स्थान पर निरंतर असुरों की वक्र दृष्टि रहती है, अतएव असुरों के निवारा या शान्ति के लिए पूजा-पाठ करना आवश्यक है। प्रासाद-मंडन में इस प्रकार के चौदह शान्ति कर्म या शान्तिक कहे गये है यथा (1) जिस दिन भूमि परीक्षा करने के लिए उसमें खातकर्म किया जाय; (२) जिस दिन कूर्म शिला की स्थापना की जाय (३) जिस दिन शिलान्यास किया जाय; (४) जिस दिन तल निर्माण या तल विन्यास के लिए सूत्रमापन या सूत्रपात (सूत्र छोड़ना) द्वारा पदों के निशान लगाए जांय; (५) जिस दिन सबसे नीचे के पर का पहला पत्थर, जिसे खुर-शिला कहते हैं (फारसी पत्थर लाकन्दाज ) रक्वा जाय; (६) जिस दिन मंदिर छट की स्थापना की जाय; (७) जिस दिन मंडप के मुख्य स्तम्भ की स्थापना की जाय (८) जिस दिन मंडर के स्तम्भों के कार भारपट्ट रखता जाय (8) जिस दिन शिखर की चोटी पर पद्म शिला रखी जाय ८
SR No.008426
Book TitlePrasad Mandana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1986
Total Pages290
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size6 MB
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