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________________ 'वेदान्तेषु यमाहुरेक पुरुषं व्याप्य स्थितं रोदसी, अंतर्यश्च मुमुक्षुभिनियमितप्रासादिभिर्मृग्यते । अर्थात् प्राण और मन इन दो महती शक्तियों को नियम बद्ध करके अपने भीतर ही उस देवतत्व का जो सर्वत्र व्याप्त है दर्शन किया जा सकता है । इस अध्यात्म नियम के ग्रावार पर भागवतों ने विशेषतः देवप्रासादों के भौतिक रूप की कल्पना और उनमें से उस देवतत्त्व की उपासना के महत्वपूर्ण शास्त्र का निर्माण किया । विक्रम की प्रथम शताब्दी के लगभग भागवतों का यह दृष्टिकोण उभर कर सामने आ गया और तदनुसार ही देव मंदिरों का निर्माण होने लगा । इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं विशेष रूप से सामने आई। उसमें एक तो यह थी कि यद्यपि मनुष्यों की कल्पना के अनुसार देव एक है किन्तु वे सब एक ही मूल भूत शक्ति के रूप और उनमें केवल नामों का अन्तर है । यह वही पुराना वैदिक सिद्धान्त था जिसे ऋग्वेद में 'यो देवानां नामधा एक एव', प्रथवा 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति', इन वाक्यों द्वारा कहा गया था । नामों के सहस्राधिक प्रपंच में एक सूत्रता लाते हुए भागवतों ने देवाधिदेव को विष्णु की संज्ञा दी । 'देवेष्ठि व्याप्नोति इति विष्णु, इस निर्वाचन के अनुसार यह संज्ञा सर्वथा लोकप्रिय और मान्य हुई। इसी प्रकार वासुदेव आदि अनेक नामों के विषय में भी उदार दृष्टि से इस प्रकार के निर्वचन किए गए जिनमें नामों के ऐतिहासिक या मानवीय पक्ष को गोरा करके उनके देवात्मक या दिव्य पक्ष को प्रधानता मिली। उदाहरण के लिए वासुदेव शब्द की व्युत्पत्ति विष्णुपुराण में इस प्रकार है सर्वत्राऽसो समस्तं च वसत्यवेति वै यतः । ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपठ्यते ॥ ( १ २ ।१२) सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि । भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्मृतः । ( ६।५।८० ) इसी को महाभारत में इस प्रकार वहा गया है--- छादयामि जगत्सर्वं भूत्वा सूर्य इवांशुभिः । सर्वभूताधिवासश्च वासुदेवः ततः स्मृतः ॥ (शान्तिपर्व, ३४१।४१ ) वासनात्सर्वभूतानां वसुत्वाद्देवयोनितः । वासुदेवस्ततो वेदा.................. उद्योगपर्व (७०1३) इसी उदात्त घरातल पर शंकराचार्य ने वासुदेव शब्द को इस प्रकार व्युत्पत्ति दी है " वसति वासयति आच्छादपति सर्वमिति वा वासुः, दीव्यति क्रीडते विजिगीषते व्यवहरति द्योतते स्तूयते गच्छ"तीति वा देवः । यासुश्चासी देवश्वेति वासुदेव: ।" (विष्णु सहस्रनाम, शाङ्कर भाष्य, ४६ श्लोक ) इस प्रकार की तरल और तरंगित मनःस्थिति भागवतों की विशेषता थी जिसके द्वारा उन्होंने सत्र धर्मा के समन्वय का राजमार्ग अपनाया | देव के बहुविध नामों के विषय में उनके दृष्टिकोण का सार यह था पर्यायवाचकैः शब्दैस्तत्त्वमाद्यमनुत्तमम् | व्याख्यातं तत्त्वभावज्ञैरेवं सद्भावचिन्तकैः || ७ ( वायु पुराण, ४४५)
SR No.008426
Book TitlePrasad Mandana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1986
Total Pages290
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size6 MB
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