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में जो देव विग्रह है वह उस प्रनादि अनन्त ब्रह्म तत्व का प्रतीक है जिो वैदिक भाषा में प्रारण कहा गया है । जो सृष्टि से पूर्व में भी था, जो विश्व के रोम-रोम में व्याप्त है, वही प्रारण सबका ईश्वर है। सब उसके वश में हैं। सृष्टि के पूर्व की अवस्था में उसे असत् कहा जाता है और सृष्टि की अवस्था में उसे ही सत् कहते हैं । देव और भूत ये हो दो तत्व हैं जिनसे समस्त विश्व विरचित है। देव, अमृत, ज्योति और सत्य है । भूत मर्त्य, तम और अनृत है। भूत को ही असुर कहते हैं। हम सबको एक ही समस्या है अर्थात् मृत्यु, तम और असत्य से अपनी रक्षा करना और अमृत, ज्योति एवं सत्य की शरण में जाना । यही देव का प्राश्रय है। देव की शरणागति मनुष्य के लिए रक्षा का एक मात्र मार्ग है। यहाँ कोई प्राणी ऐसा नहीं जो मृत्यु और अन्धकार से बचकर अमन और प्रकाश की प्राकांक्षा न करता हो अतएव देवाराधन ही मर्य मानव के लिये एकमात्र श्रेयपथ है । इस तत्त्व से ही भारतीय संस्कृति के वैदिक युग में यज्ञ संस्था का जन्म हुप्रा । प्राणाग्नि की उपासना ही यज्ञ का मूल है । त्रिलोकी या रोदसी ब्रह्माण्ड को मूलभूत शक्ति को स्द्र कहते हैं। 'अग्निवं रुद्रः' इस सूत्र के अनुसार जो प्राणाग्नि है वही रद्र है । 'एक एवाग्निर्बहधा समिद्धः' इस वैदिक परिभाषा के अनुसार जिस प्रकार एक मूलभूत अग्नि से अन्य अनेक अग्नियों का समिन्धन होता है उसी प्रकार एक देव अनेक देवों के रूप में लोक मानस की कल्पना में आता है। कौन देव महिमा में अधिक है. यह प्रश्न ही प्रसंगत है। प्रत्येक देव अमृत का रूप है। वह शक्ति का अनन्त अक्षय स्रोत है। उसके विषय में उत्तर और अधर या बड़े-छोटे के तारतम्य की कल्पना नहीं की जा सकती।
देव तत्त्व मुल में अव्यक्त है। उसे ही ध्यान की शक्ति से व्यक्त किया जाता है। हदय की इस प्रद. भुत शक्ति को ही प्रेम या भक्ति कहते हैं। यज्ञ के अनुष्ठान में और देवप्रासादों के अनुष्ठान में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार यज्ञ को त्रिभुवन को नाभि कहा जाता था और उसकी अग्नि जिस वेदि में प्रज्वलित होती थी उस वेदि को अनादि अनंत पृथ्वी का केन्द्र मानते थे, उसी प्रकार देव मन्दिर के रूप में समष्टि विश्व व्यस्टि के लिये मूर्त बनता है और जो समष्टि का सहस्र शीर्षा पुरुष है यह व्यष्टि के लिये देव-विग्रह के रूप में मूर्त होता है । यज्ञों के द्वारा देव तत्व की उपासना एवं देव प्रासादों के द्वारा उसी देव तत्व की आराधना ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के समान प्रतीक थे। देव मंदिर में जो मूत्त विग्रह की प्रदक्षिणा या परिक्रमा की जाती है उसका अभिप्राय भी यही है कि हम अपने ग्राप को उस प्रभाव-क्षेत्र में लीन कर देते हैं जिसे देव की महान् प्राणशक्ति या महिमा कहा जा सकता है । उपासना या पाराधना का मूलतत्व यह है कि मनुष्य स्वयं देव हो जाय । जो स्वयं प्रदेव है अर्थात् देव नहीं बन पाता वह देव की पूजा नहीं कर सकता । मनुष्य के भीतर प्राण और मन ये दोनों देव रूप ही हैं। इनमें दिव्य भाव उत्पन्न करके ही प्राणी देव की उपासना के योग्य बनता है।.
जो देव तत्त्व है वही वैदिक भाषा में अग्नि तत्व के नाम से अभिहित किया जाता है। कहा है--- 'अग्निः सर्वा देवता' अर्थात् जितने देव हैं अग्नि सबका प्रतीक है । अग्नि सर्वदेवमय है। सृष्टि की जितनी दिव्य या समष्टिगत शक्तियां हैं उन सबको प्राणाग्नि इस मनुष्य देह में प्रतिष्ठित रखती है । इसी तत्व को लेकर देव प्रासादों के रूपका विकास हमा। जिस प्रकार यज्ञवेदी में अग्नि का स्थान है उसी प्रकार देव की प्रतिष्ठा के लिए प्रासाद की कल्पना है। देव तत्त्व के साक्षात्कार का महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक प्राणी उसे अपने ही भीतर प्राप्त कर सकता है। जो देव द्यावा पृथित्री के विशाल अंतराल में व्याप्त है वही प्रत्येक प्राणी के अंत:करण में है। जैसा कालिदास ने कहा है