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स्थापक अर्थात् स्थपति और जिस देवता का मन्दिर हो उनके भी नवाज नाड़ी वेध का मिलान आवश्यक माना गया है । काष्ठ, मिट्टी, ईंट, शिला, धातु और रत्न इन उपकरणों से मंदिर बनाए जाते हैं, इनमें उत्तरोत्तर का अधिक पुण्य है। पत्थर के प्रासाद का फल अनंत कहा गया है। भारतीय देव प्रासाद अत्यन्त पवित्र कल्पना है । विश्व को जन्म देने वाले देवाधिदेव भगवान का निवास देवगृह या मंदिर में माना जाता है । जिसे वेदों में हिरण्यगर्भ कहा गया है वही देव मंदिर का गर्भगृह है। सृष्टि का मूल जो प्राण तत्त्व है उसे ही हिरराय कहते हैं। प्रत्येक देव प्राणतत्त्व है, वही हिरण्य है । " एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" के अनुसार एक ही देव अनेक देवों के रूप में अभिव्यक्त होता है । प्रत्येक देव हिरण्य की एक-एक कला है अर्थात् मूलभूत प्राण तत्त्व की एक-एक रश्मि है। मंदिर का जो उत्सेध या ब्रह्म सूत्र है वही समस्त सृष्टि का मेरु या यूप हैं । उसे ही वेदों में 'बाण' कहा गया है। एक बाण वह है जो स्थूल दृश्य सृष्टि का प्राधार है और जो पृथिवी से लेकर लोक तक प्रत्येक वस्तु में प्रोत-प्रोत है । द्यावा पृथिवी को वैदिक परिभाषा में रोदसी ब्रह्माण्ड कहते हैं । इस रोदसी सृष्टि में व्याप्त जो ब्रह्मसूत्र है वही इसका मूलाबार है । उसे ही वैदिक भाषा में 'ओपश' भी कहा जाता है । बाग, प्रोपरा, मेरु, ब्रह्मसूत्र ये सब समानार्थक हैं और इस दृश्य जगत् के उस प्राधार को सूचित करते हैं जिस ध्रुव बिन्दु पर प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में जन्म से मृत्यु तक प्रतिष्ठित रहता है । यह मनुष्य शरीर और इसके भीतर प्रतिष्ठित प्राणतत्त्व विश्वकर्मा की सबसे रहस्यमयी कृति है । देव मंदिर का निर्माण भी सर्वथा इसी की अनुकृति है । जो चेतना या प्रारण है। वही देव-विग्रह या देवमूर्ति है और मन्दिर उसका शरीर है। प्राण-प्रतिष्ठा से ही पाषाणघटित प्रतिमा देवत्व प्राप्त करती है । जिस प्रकार इस प्रत्यक्ष जगत् में भूमि, अन्तरिक्ष और द्यौः तीन लोक है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर में और प्रासाद में भी तीन लोकों की कल्पना है। पैर पृथिवी हैं, मध्यभाग अन्तरिक्ष है श्रीर सिर द्युलोक है । इसी प्रकार मंदिर की जगती या अधिष्ठान पादस्थानीय है, गर्भगृह या मंडोवर मध्यस्थानीय है पीर शिखर लोक या शीर्ष भाग है। यह त्रिक यज्ञ की तीन प्रग्नियों का प्रतिनिधि है। मूलभूत एक ग्रग्नि सृष्टि के लिये तीन रूपों में प्रकट हो रही है। उन्हें ही उपनिषदों की परिभाषा में मन, प्राण और वाक् बहते हैं । ari atm का तात्पर्य पंचभूतों से है क्योंकि पंचभूतों में प्रकाश सबसे सूक्ष्म है और प्रकाश का गुण शब्द या वाक् है । प्रतएव वाक् को श्राकाशादि पांचों भूतों का प्रतीक मान लिया गया है । मनुष्य शरीर में जो प्राणाग्नि है वह मन, प्रारा और पंचभूतों के मिलने से उत्पन्न हुई है ( एतन्मयो वाऽप्रयमात्मा वाङमयो मनोमयः प्राणमयः शतपथ १४।४।३।१० ) पुरुष के भीतर प्रज्वलित इस प्रति को ही वैश्वानर कहते हैं ( स एषोऽग्निवैश्वानरो यत्पुरुषः, शतपथ १०|६|१|११ ) | जो वैश्वानर अग्नि है वही पुरुष है । जो पुरुष है वही देव विग्रह या देवमूर्ति के रूप में दृश्य होता है। मूर्त और अमूर्त, निसक्त और श्रनिसक्त ये प्रजापति के दो रूप है । जो मूर्त है वह त्रिलोकी के रूप में दृश्य और परिमित है । जो अमूर्त है वह अव्यक्त और अपरिमित है । जिसे पुरुष के रूप में वैश्वानर कहा जाता है वही समष्टि के रूप में पृथिवी-अंतरिक्ष प्रौर द्युलोक रूपी त्रिलोकी है ।
"स यः स वैश्वानरः । इमे स लोकाः । इयमेव पृथिवी विश्वमग्निर्नर: । अंतरिक्षमेव विश्वं वायुर्नरः ।
द्यौरेव विश्वमादित्यो नरः । शतपथ ६।३।१२३ ।"
इस प्रकार मनुष्य देह, अखिल ब्रह्माण्ड और देव प्रासाद इन तीनों का स्वरूप सर्वथा एक-दूसरे के साथ संतुलित एवं प्रतीकात्मक है । जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है और जो उन दोनों में हैं उसीका मूर्तरूप देव-प्रासाद है । इसी सिद्धान्त पर भारतीय देव मंदिर की ध्रुव कल्पना हुई है । मंदिर के गर्भ गृह
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