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________________ ४३ सं. १७३९ नी भाषा " समवसरगर्नु हुउं रे मंडाण, माणिक हेम रजत सुप्रमाण । सिंहासनी बईठा जिनवीर, दिई देशना अरथ गंभीर ॥ विद्युनमाली सुर तिहां आवइ, निन वांदी आनंद बहु पावइ। चरम केवली कुण प्रभु थास्यइ, श्रेणिक पूछई मन उल्लासइ॥ प्रभु कहइ सुणिश्रेणिक नृपचंद, ब्रह्मलोक सामानिक इंद ।। चउदेवीयुत विद्युनमाली, .. सातमे दिनि एचवी शुभशाली।। ऋषभदत सुत तुज पुर ठामई, चरम केवली जंबू नामई ।। होस्यइ ते सुणि देव अनाढी, हरषइ परखई निज कुल आढी॥" ( यशोविजयनीए रचेली अने तेमनी हस्तलिखित प्रतिमांथी । उतारेली) सं. १९४४ नी भाषा समवसरणनो हुओ रे मंडाण, माणिक हेम रजत सुप्रमाण । सिंहासन बेठा जिन वीर, दीए देशना अर्थ गंभीर ।। विद्युन्माली सुर तीहां आवे, जिन वंदी आनंद बहु पाये। चरमकेवली कुण प्रुभ था, श्रेणिक पूछे मन उल्लासे ॥ प्रुभ कहे सुण श्रेणिक नृपचंद, ब्रह्मलोक सामानिक इंद। चउदेवीयुत विद्युन्माली, सातमे दिने ए चवी शुभशाली।। ऋषभदत्तसुत तुज पुर अमे, चरम केवली जंबू नामे। होस्ये ते सुणी देव अनाढी, हरखे परखी निजकुल आढी" ( यशोविजयजीए रचेली अने जंबुस्वामिना रासनी चोपडीमाथी उतारेली) १ जूओ छट्ठी गूजराती साहित्यपरिषदनो रिपोर्ट पृ० ५२ . मुनि कल्याणविजयजीनो निबंध.
SR No.008425
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGujarat Puratattva Mandir Ahmedabad
Publication Year1925
Total Pages456
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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