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ध्यानमां आवेली ए एक विशेषता पण कांइ आगमोनी भाषामां व्यापक रीते आवेली नथी, एमां तो 'ए'ना प्रयोगनी पेठे प्राकृतना 'ओ' प्रत्ययवाळां पण वणां रूपो-ते पण आचारांग जेवा प्राचीन सूत्रमा य-मळी आवे छे. जेमके: निक्खतो, उद्देसो, अप्पमाओ, निरामगंधी, उवरओ, उवेहमाणो, आलीणगुतो, सहिओ, नाणागमो, संथवो, दोसो, हव्ववाहो, दुरणुचरो, मग्गो वगेरे (आचारांग सूत्र पृ०४१-१२४-१२७-१३०-१५५-१६८-१८३-१८४१८५-१९०-१९२ समितिनु). एमणे न आ संबंधमा एम जणाव्यु छे के, " प्रायोऽस्यैव विधानात् न वक्ष्यमाणलक्षणस्य" (प्रा० व्या० पृ० १५९ सू० २८७) अर्थात् " आर्ष प्रवचनमा प्रायः मागधीना 'ए' प्रत्ययर्नु ज विधान छे, पण मागधीनां बीजां बीजां लक्षणोनु नथी." आ उल्लेखमां वपराएलो प्रायः' शब्द आगमोमां 'ए' प्रत्ययनी वपराशनो पण संकोच बतावे छे अने एथी ज एम जणाय छे के उपर्युक्त · ओ' प्रत्ययनी वपराशनुं आगमिक क्षेत्र पण कांइ हेमचंद्रना ध्यान बहार छे एम नथी.
सार आ छे के, आचार्य हेमचंद्रे पोताने उद्भवेला जैन आगमोनी भाषाने लगता प्रश्ननो खुलासो आम वे रीते करी बताव्यो छः __एक तो जैन आगमोनी कहेवाती अर्धमागधीने पोतानी कृतिमां खास जदं स्थान नहि आपीने. बीजु, एमां जोइए तेटला प्रमाणमां मागधीनी विशेषताओ न होवार्नु जणावीने,
* आ आगमोनी भाषा अर्धमागधी नयी पण प्राकृत के आर्षप्राकृत छे' एम स्पष्ट शब्दोमां कहेवा जेई जैन समाजनुं वातावरण अत्यारे पण नथी तो संप्रदाय भक्तिना बारमा सैकामां तो शी रीते होय छतां य एक जवाबदार अने प्रामाणिक वैयाकरण तरीके आचार्य