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भाषा बीजी भाषाथी जुदी गणावी शकाती होय अने एनुं व्याकरण पण लखी शकातुं होय तो भाषाओनो अने व्याकरणोनो अंत ज केम आवत ?
आ संबंधमां आचार्य हेमचंद्रनुंज उदाहरण बस छे: श्री हेमचंद्रे प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची अने अपभ्रंशनां व्याकरणो लख्यां छे तेम साथे साथे आर्षप्राकृतने पण लीधुं छे. साधारण प्राकृत करतां आर्षप्राकृतमां कांइक विशेषता जरुर छे पण ते एटली नजीवी छे के, तेनुं जुदुं व्याकरण करवुं तेमने योग्य नथी जणायुं. आज कारणथी साधारण प्राकृतना पेटामां आर्षप्राकृतने पण एमणे मेळवी दीधुं छे.
हेमचंद्र जेवा जैन वैयाकरण शौरसेनी, मागधी अने पैशाची जेवी प्रायः जैनेतर ग्रंथोमां वपराएली के नाटकीय भाषाओनुं व्याकरण लखवा प्रेराय अने जैन आगमोनी भाषानुं व्याकरण न लखे ए कांइ अर्थविनानी वात नथी.
जैन परंपरामां अर्धमागधीना साहित्य तरीके प्रसिद्धि पामेलु समस्त आगमसाहित्य एमनी सामे ज हतुं, ए विषेनो भाषानो अने भावनो मनो अभ्यास पण गंभीर हतो छतां य एम ए साहित्यने लगतुं एक जनुं व्याकरण केम न लख्युं ! ए प्रश्न एमने माटे थवो सहज छे.
ए प्रश्ननो उत्तर आचार्य हेमचंद्रे पोतानी कृतिद्वारा ज आपी दीघेलो छे. आपणे जेम आगळ जोइ गया के, आर्षप्राकृतमा जुटुं व्याकरण करवा जेवी खास विशेषता न जणायाथी जेम एने साधा - रण प्राकृतना पेटामा समावी दीधुं छे तेम आगमसाहित्यनी भाषामा पण ए बन्ने प्राकृतो करतां एवी विशिष्ट विशेषता न जणायाथी