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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सिद्धानां जीवत्वदेहमात्रत्वव्यवस्थेयम्।
सिद्धानां हिं द्रव्यप्राणधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति। न च जीवस्वभावस्य सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात्। न च तेषां शरीरेण सह नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः, यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादतीतानंतरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यंतभिन्नदेहाः। वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा, यतस्ते लौकिकप्राणधारणमंतरेण शरीरसंबंधमंतरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रत-पंतीति।।३५।।
ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो। उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।। ३६ ।।
टीका:- यह सिद्धोंके [ सिद्धभगवन्तोंके ] जीवत्व और देहप्रमाणत्वकी व्यवस्था है।
सिद्धोंको वास्तवमें द्रव्यप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभाव मुख्यरूपसे नहीं है; [ उन्हें] जीवस्वभावका सर्वथा अभाव भी नहीं है, क्योंकि भावप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभावका मुख्यरूपसे सद्भाव है। और उन्हें शरीरके साथ, नीरक्षीरकी भाँति, एकरूप वृत्ति नहीं है; क्योंकि शरीरसंयोगसे हेतुभूत कषाय और योगका वियोग हुआ है इसलिये वे अतीत अनन्तर शरीरप्रमाण अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यंत देहरहित हैं। और वचनगोचरातीत उनकी महिमा है; क्योंकि लौकिक प्राणके धारण बिना और शरीरके सम्बन्ध बिना, संपूर्णरूपसे प्राप्त किये हुए निरुपाधि स्वरूप द्वारा वे सतत प्रतपते हैं [ -प्रतापवन्त वर्तते हैं ] ।। ३५ ।।
१। वृत्ति = वर्तन; अस्तित्व।
२। अतीत अनन्तर = भूत कालका सबसे अन्तिम; चरम। [ सिद्धभगवन्तोंकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होने के
कारण उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उन्हें 'देहप्रमाणपना' कहा जा सकता है तथापि, वास्तवमें वे अत्यन्त देहरहित हैं।]
३। वचनगोचरातीत = वचनगोचरताको अतिक्रान्त ; वचनविषयातीत; वचन-अगोचर।
ऊपजे नहीं को कारणे ते सिद्ध तेथी न कार्य छे, उपजावता नथी कांई पण तेथी न कारण पण ठरे। ३६ ।
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