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कहानजैनशास्त्रमाला ]
षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
[ ६७
आत्मा हि संसारावस्थायां क्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसंताने यथैकस्मिन् शरीरे वृत्तः तथा क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम्। न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम्। अनादिबंधनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वातन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच चेष्टमानस्यात्मनस्तभवतीति तस्य देहांतरसंचरणकारणोपन्यास
थाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशो
इति॥३४॥
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।। ३५ ।।
येषां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य ।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः ।। ३५ ।।
आत्मा संसार–अवस्थामें क्रमवर्ती अच्छिन्न [ -अटूट ] शरीरप्रवाहमें जिस प्रकार एक शरीरमें वर्तता है उसी प्रकार क्रमसे अन्य शरीरोंमें भी वर्तता है; इस प्रकार उसे सर्वत्र [ - सर्व शरीरोंमें ] अस्तित्व है। और किसी एक शरीरमें, पानीमें दूधकी भाँति एकरूपसे रहने पर भी, भिन्न स्वभावके कारण उसके साथ एक [ तद्रूप ] नहीं है, इस प्रकार उसे देहसे पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप उपाधिसे विवर्तन [ परिवर्तन ] पानेवाले विविध अध्यवसायोंसे विशिष्ट होनेके कारण [ – अनेक प्रकारके अध्यवसायवाला होनेके कारण ] तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्मसमूहसे मलिन होनेके कारण भ्रमण करते हुए आत्माको तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मोंसे रचे जाने वाले [ – उस प्रकारके मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मोंसे रचे जाने वाले ] अन्य शरीरमें प्रवेश होता है; इस प्रकार उसे देहान्तरमें गमन होनेका कारण कहा गया ।। ३४ ।।
गाथा ३५
अन्वयार्थ:- [ येषां ] जिनके [ जीवस्वभाव: ] जीवस्वभाव [ - प्राणधारणरूप अस्ति ] नहीं है और [ सर्वथा ] सर्वथा [ तस्य अभावः च ] उसका अभाव भी [ भिन्नदेहाः] देहरहित [ वाग्गोचरम् अतीताः ] वचनगोचरातीत [ सिद्धाः [ सिद्धभगवन्त ] हैं।
नहीं
जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने, ते सिद्ध छे-जे देहविरहित वचनविषयातीत छे । ३५ ।
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जीवत्व ] [ न है, [ ते ] वे भवन्ति ] सिद्ध