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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ६६] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द स्वप्रदेशोपसंहारेण तव्याप्नोत्यणुशरीरमिति।।३३।। सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो। अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं।। ३४ ।। सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये ऐक्यस्थः। अध्यवसानविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः।। ३४।। अत्र जीवस्य देहाद्देहांतरेऽस्तित्वं , देहात्पृथग्भूतत्वं , देहांतरसंचरणकारणं चोपन्यस्तम्। व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके संकोच द्वारा उस छोटे शरीरमें व्याप्त होता है। भावार्थ:- तीन लोक और तीन कालके समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोंको एक समयमें प्रकाशित करनेमें समर्थ ऐसे विशुद्ध-दर्शनज्ञानस्वभाववाले चैतन्यचमत्कारमात्र शुद्धक्कवास्तिकायसे विलक्षण मिथ्यात्वरागादि विकल्पों द्वारा उपार्जित जो शरीरनामकर्म उससे जनित [अर्थात् उस शरीरनामकर्मका उदय जिसमें निमित्त है ऐसे] संकोचविस्तारके आधीनरूपसे जीव सर्वोत्कृष्ट अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ सहस्रयोजनप्रमाण महामत्स्यके शरीरमें व्याप्त होता है, जघन्य अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भाग जितने लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदके शरीरमें व्याप्त होता है और मध्यम अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ मध्यम शरीरमें व्याप्त होता है।। ३३।। गाथा ३४ अन्वयार्थः- [ जीवः ] जीव [ सर्वत्र ] सर्वत्र [क्रमवर्ती सर्व शरीरोमें ] [ अस्ति ] है [च ] और [ एककाये] किसी एक शरीरमें [ ऐक्यस्थः] [क्षीरनीरवत् ] एकरूपसे रहता है तथापि [न एकः] उसके साथ एक नहीं है; [अध्यवसानविशिष्ट: ] अध्यवसायविशिष्ट वर्तता हुआ [ रजोमलैः मलिनः] रजमल [ कर्ममल ] द्वारा मलिन होनेसे [ चेष्टते ] वह भमण करता है। टीकाः- यहाँ जीवका देहसे देहांतरमें [-एक शरीरसे अन्य शरीरमें ] अस्तित्व , देहसे पृथक्त्व तथा देहान्तरमें गमनका कारण कहा है। तन तन धरे जीव, तन महीं औकयस्थ पण नहि ओक छे जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे। ३४। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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