________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[६३
कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन अत्र जीवानां स्वाभाविकं प्रमाणं मुक्तामुक्तविभागश्चोक्तः।
जीवा ह्यविभागैकद्रव्यत्वाल्लोकप्रमाणैकप्रदेशाः। अगुरुलघवो गुणास्तु तेषामगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदाः प्रतिसमय
टीका:- यहाँ जीवोंका स्वाभाविक प्रमाण तथा उनका मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग कहा है।
जीव वास्तवमें अविभागी-एकद्रव्यपनेके कारण लोकप्रमाण-एकप्रदेशवाले हैं। उनके [जीवोंके] अगुरुलघुगुण-अगुरुलघुत्व नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसका 'अविभाग परिच्छेद-प्रतिसमय होने वाली षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त है; और | उनके अर्थात् जीवोंके ] प्रदेश- जो कि अविभाग परमाणु जितने मापवाले सूक्ष्म अंशरूप हैं वे-असंख्य हैं। ऐसे उन जीवोंमें कतिपय कथंचित [ केवलसमदघातके कारण ] लोकपूरण-अवस्थाके प्रकार द्वारा समस्त लोकमें व्याप्त होते हैं और कतिपय समस्त लोकमें अव्याप्त होते हैं। और उन जीवोंमें जो अनादि
१। प्रमाण = माप; परिमाण। [जीवके अगुरुलघुत्वस्वभावके छोटेसे छोटे अंश [ अविभाग परिच्छेद ] करने पर
स्वभावसे ही सदैव अनन्त अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे [षट्गुणवृद्धिहानियुक्त] अनन्त अंशों जितना हैं। और जीवके स्वक्षेत्रके छोटेसे छोटे अंश करने पर स्वभावसे ही सदैव असंख्य अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे असंख्य अंशों जितना है।]
२। गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद। [जीवमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव जीवको
स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [अर्थात् स्वरूपमें रहनेके] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ अगुरुलघु गुण [-अंश] कहे हैं।]
३। किसी गुणमें [ अर्थात् गुणकी पर्यायमें ] अंशकल्पना की जानेपर, उसका जो छोटेसे छोटा [ जघन्य मात्रारूप, निरंश ] अंश होता है उसे उस गुणका [अर्थात् गुणकी पर्यायका ] अविभाग परिच्छेद कहा जाता है।
४। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि। [ अगुरुलघुत्वस्वभावके अनन्त अंशोमें स्वभावसे ही प्रतिसमय षट्गुण वृद्धिहानि होती रहती है।]
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com