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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
संभवत्षस्थानपतितवृद्धिहानयोऽनंताः। प्रदेशास्तु अविभागपरमाणुपरिच्छिन्नसूक्ष्मांशरूपा असंख्येयाः। एवंविधेषु तेषु केचित्कथंचिल्लोकपूरणावस्थाप्रकारेण सर्वलोकव्यापिनः, केचित्तु तदव्यापिन इति। अथ ये तेषु मिथ्यादर्शनकषाययोगैरनादिसंततिप्रवृत्तैर्युक्तास्ते संसारिणः, ये विमुक्तास्ते सिद्धाः, ते च प्रत्येकं बहव इति।। ३१-३२।।
जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं। तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासयदि।।३३।।
यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम्। तथा देही देहस्थ: स्वदेहमात्रं प्रभायसति।।३३।।
एष देहमात्रत्वदृष्टांतोपन्यासः।
प्रवाहरूपसे प्रवर्तमान मिथ्यादर्शन-कषाय-योग सहित हैं वे संसारी हैं, जो उनसे विमुक्त हैं [अर्थात् मिथ्यादर्शन-कषाय-योगसे रहित हैं] वे सिद्ध हैं; और वे हर प्रकारके जीव बहुत हैं [ अर्थात् संसारी तथा सिद्ध जीवोंमेंसे हरएक प्रकारके जीव अनन्त हैं] ।। ३१-३२।।
गाथा ३३ अन्वयार्थः- [ यथा] जिस प्रकार [ पद्मरागरत्नं ] पद्मरागरत्न [ क्षीरे क्षिप्तं ] दूधमें डाला जाने पर [क्षीरम् प्रभासयति] दूधको प्रकाशित करता है, [तथा] उसी प्रकार [ देही] देही [ जीव] [ देहस्थः ] देहमें रहता हुआ [ स्वदेहमात्रं प्रभासयति ] स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।
टीकाः- यह देहप्रमाणपनेके दृष्टान्तका कथन है [अर्थात् यहाँ जीवका देहप्रमाणपना समझानेके लिये दृष्टान्त कहा है।
* यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि दृष्टान्त और दार्टान्त अमुक अंशोमें ही एक-दूसरेके साथ मिलते हैं [
समानतावाले ] होते हैं, सर्व अंशोमें नहीं।
ज्यम दूधमां स्थित पद्मरागमणि प्रकाशे दूधने, त्यम देहमां स्थित देही देहप्रमाण व्यापकता लहे। ३३ ।
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