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कहानजैनशास्त्रमाला ]
षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो ।। ३० ।।
प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीविष्यति यः खलु जीवितः पूर्वम् । स जीवः प्राणाः पुनर्बलमिन्द्रियमायुरुच्छ्वासः ।। ३० ।।
जीवत्वगुणव्याख्येयम्।
आत्मा समस्त ज्ञेयको जानता है। ऐसी सर्वज्ञदशा इस क्षेत्रमें इस कालमें [ अर्थात् इस क्षेत्रमें इस कालमें जन्म लेने वाले जीवोंको ] प्राप्त नहीं होती तथापि सर्वज्ञत्वशक्तिवाले निज आत्माका स्पष्ट अनुभव इस क्षेत्रमें इस कालमें भी हो सकता है।
यह शास्त्र अध्यात्म शास्त्र होनेसे यहाँ सर्वज्ञसिद्धिका विस्तार नहीं किया गया है; जिज्ञासुको वह अन्य शास्त्रोमें देख लेना चाहिये ।। २९ ।।
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गाथा ३०
अन्वयार्थ:- [ यः खलु ] जो [ चतुर्भिः प्राणैः ] चार प्राणोंसे [ जीवति ] जीता है, [ जीविष्यति ] जियेगा और [ जीवितः पूर्वम् ] पूर्वकालमें जीता था, [ स जीवः ] वह जीव है; [ पुनः प्राणाः ] और प्राण [ इन्द्रियम् ] इन्द्रिय, [ बलम् ] बल, [ आयुः ] आयु तथा [ उच्छ्वास: ] उच्छ्वास है।
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टीका:- यह, जीवत्वगुणकी व्याख्या 1
प्राण इन्द्रिय, बल, आयु और उच्छ्वासस्वरूप है। उनमें [ - प्राणोंमें ], #चित्सामान्यरूप अन्वयवाले वे भावप्राण है और पुद्गलसामान्यरूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण हैं । उन दोनों प्राणोंको त्रिकाल अच्छिन्न-संतानरूपसे [ अटूट धारासे ] धारण करता है इसलिये संसारीको जीवत्व है। मुक्तको [ सिद्धको ] तो केवल भावप्राण ही धारण होनेसे जीवत्व है ऐसा समझना।। ३० ।।
* जिन प्राणोंमें चित्सामान्यरूप अन्वय होता है वे भावप्राण हैं अर्थात् जिन प्राणोंमें सदैव 'चित्सामान्य, चित्सामान्य, चित्सामान्य' ऐसी एकरूपता - सदृशता होती है वे भावप्राण हैं । [ जिन प्राणोंमें सदैव
"
'पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य ऐसी एकरूपता - सदृशता होती है वे द्रव्यप्राण हैं । ]
जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय- आयु-बल- उच्छ्वास छे । ३० ।
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