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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इदं सिद्धस्य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखसमर्थनम्।
आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसंकोचितात्मशक्ति: परद्रव्यसंपर्केण क्रमेण किंचित् किंचिज्जानाति पश्यति, परप्रत्ययं मूर्तसंबद्धं सव्याबाधं सांतं सुखमनुभवति च। यदा त्वस्य कर्मक्लेशा: सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्मशक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबद्धमव्याबाधमनंतं सुख मनुभवति च। तत: सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानत: पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण प्रयोजनमिति।।२९।।
भावार्थ:- सिद्धभगवान [ तथा केवलीभगवान ] स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिरूपसे परिणमित होते हैं; उनके उस परिणमनमें लेशमात्र भी [ इन्द्रियादि] परका आलम्बन नहीं है।
यहाँ कोई सर्वज्ञका निषेध करनेवाला जीव कहे कि- 'सर्वज्ञ है ही नहीं, क्योंकि देखने में नहीं आते,' तो उसे निम्नोक्तानुसार समझाते हैं:
हे भाई! यदि तुम कहते हो कि 'सर्वज्ञ नहीं है,' तो हम पूछते हैं कि सर्वज्ञ कहाँ नहीं है ? इस क्षेत्रमें और इस कालमें अथवा तीनों लोकमें और तीनों कालमें ? यदि 'इस क्षेत्रमें और इस कालमें सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा कहो. तो वह संमत ही है। किन्त यदि . तीनों लोकों और तीनों कालमें सर्वज्ञ नहीं है ' ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि वह तुमने कैसे जाना ? यद तीनों लोकको और तीनों कालको सर्वज्ञ रहित तमने देख-जान लिया तो तम्ही सर्वज्ञ हो गये. क्योंकि जो लोक और तीन कालको जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों कालको तुमने नहीं देखा-जाना है तो फिर ' तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है ' ऐसा तुम कैसे कह सकते हो ? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारा किया हुआ सर्वज्ञका निषेध योग्य नहीं है।
हे भाई! आत्मा एक पदार्थ है और ज्ञान उसका स्वभाव है; इसलिये उस ज्ञानका सम्पूर्ण विकास होने पर ऐसा कुछ नहीं रहता कि जो उस ज्ञानमें अज्ञात रहे। जिस प्रकार परिपूर्ण उष्णतारूप परिणमित अग्नि समस्त दाह्यको जलाती है, उसी प्रकार परिपूर्ण ज्ञानरूप परिणमित
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