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कहानजैनशास्त्रमाला ]
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भोक्तृत्वोच्छेदः। इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मनः स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृ
च
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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदुःखपरिणामानां
त्वमिति।।२८।।
जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य । पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं सगममुत्तं ।। २९ ।।
जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः प्राप्नोति सुखमनंतमव्याबाधं
सर्वलोकदर्शी च । स्वकममूर्तम् ।। २९ ।।
जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ ऐसे आत्माको स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखका [ - स्वतंत्र स्वरूपकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुखका ] भोक्तृत्व है ।। २८ ।।
गाथा २९
अन्वयार्थः- [ सः चेतयिता ] वह चेतयिता [ चेतनेवाला आत्मा ] [ सर्वज्ञः ] सर्वज्ञ [च] और [सर्वलोकदर्शी ] सर्वलोकदर्शी [ स्वयं जातः ] स्वयं होता हुआ, [ स्वकम् ] स्वकीय [ अमूर्तम् ] अमूर्त [ अव्याबाधम् ] अव्याबाध [ अनंतम् ] अनन्त [ सुखम् ] सुखको [ प्राप्नोति ] उपलब्ध करता है।
सिद्धके निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुखका समर्थन है।
टीका:- यह,
वास्तवमें ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसारदशामें, अनादि कर्मक्लेश द्वारा आत्मशक्ति संकुचित की गई होनेसे, परद्रव्यके सम्पर्क द्वारा [ - इंद्रियादिके सम्बन्ध द्वारा ] क्रमश: कुछ-कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त [ इन्द्रियादि ] के साथ सम्बन्धवाला, सव्याबाध [ - बाधा सहित ] और सान्त सुखका अनुभव करता है; किन्तु जब उसके कर्मक्लेश समस्तरूपसे विनाशको प्राप्त होते हैं तब, आत्मशक्ति अनर्गल [ - निरंकुश ] और असंकुचित होनेसे, वह असहायरूपसे [ - किसीकी सहायताके बिना ] स्वयमेव युगपद् सब [सर्व द्रव्यक्षेत्रकालभाव ] जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त [ इन्द्रियादि ] के साथ सम्बन्ध रहित, अव्याबाध और अनन्त सुखका अनुभव करता है। इसलिये सब स्वयमेव जानने और देखनेवाले तथा स्वकीय सुखका अनुभवन करनेवाले सिद्धको परसे [ कुछभी ] प्रयोजन नहीं है।
स्वयमेव चेतक सर्वज्ञानी - सर्वदर्शी थाय छे, ने निज अमूर्त अनंत अव्याबाध सुखने अनुभवे । २९ ।
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