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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
चिद्विवर्ताः। विवर्तते हि चिच्छक्तिरनादिज्ञानावरणादि-कर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा। यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्क: प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य विश्वस्य सर्वदेशेषु युगपट्यापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते। स खल्वेष निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः। अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः । अयमेव
'कर्मसंयुक्तपना' तो होता ही नहीं , क्योंकि द्रव्यकर्मो और भावकर्मोसे विमुक्ति हुई है। द्रव्यकर्म वे पुद्गलस्कंध है और भावकर्म वे चिद्विवर्त हैं। चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोंके सम्पर्कसे [ सम्बन्धसे ] संकुचित व्यापारवाली होनेके कारण ज्ञेयभूत विश्वके [-समस्त पदार्थों के ] एक-एक देशमें क्रमश: व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्पर्क विनष्ट होता है, तब वह ज्ञेयभूत विश्वके सर्व देशोंमें युगपद् व्यापार करती हुई कथंचित् कूटस्थ होकर, अन्य विषयको प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती। वह यह [ चित्शक्तिके विवर्तनका अभाव], वास्तवमें निश्चित [-नियत, अचल] सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है। यही, द्रव्यकोंके निमित्तभूत भावकोंके कर्तृत्वका विनाश है; यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण औपाधिक सुखदुःखपरिणामोंके भोक्तृत्वका विनाश है; और यही, अनादि विवर्तनके खेदके विनाशसे
१। पूर्व सूत्रमें कहे हुए ‘जीवत्व' आदि नव विशेषोमेंसे प्रथम आठ विशेष मुक्तात्माको भी यथासंभव होते हैं, मात्र
एक 'कमेसयुक्तपना' नहीं होता।
२। चिद्विवर्त = चैतन्यका परिवर्तन अर्थात् चैतन्यका एक विषयको छोड़कर अन्य विषयको जाननेरूप बदलना; चित्शक्तिका अन्य अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित होना।
३। कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहनेवाली; अचल। [ ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्बन्ध नष्ट होने पर कहीं चित्शक्ति सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाती; किन्तु वह अन्य-अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होती-सर्वदा तीनों कालके समस्त ज्ञेयोंको जानती रहती है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
सर्वधा अपरिणामी नहीं हो जाती; किन्तु वह अन्य ४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ
४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ सम्बन्धवाले; जिनमें द्रव्यकर्मरूपी उपाधि निमित्त होती है ऐसे;
अस्वाभाविक; वैभाविक; विकारी।
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