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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[५७
अत्र मुक्तावस्थस्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम्।
आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षणे मुच्यते तस्मिनेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनंतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति। मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं, चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलम्भ-रूपं भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसंबंधविविक्तमात्यन्तिकममूर्तत्वम्। कर्मसंयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव। द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा भावकर्माणि तु
टीका:- यहाँ मुक्तावस्थावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप कहा है।
आत्मा [ कर्मरजके] परद्रव्यपनेके कारण कर्मरजसे सम्पूर्णरूपसे जिस क्षण छूटता है [-मुक्त होता है], उसी क्षण [अपने] ऊर्ध्वगमनस्वभावके कारण लोकके अन्तको पाकर आगे गतिहेतुका अभाव होनेसे [ वहाँ ] स्थिर रहता हुआ, केवलज्ञान और केवलदर्शन [निज ] स्वरूपभूत होनेके कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। उस मुक्त आत्माको, भावप्राणधारण जिसका लक्षण | -स्वरूप] है ऐसा 'जीवत्व' होता है; चिद्रप जिसका लक्षण [स्वरूप] है ऐसा 'चेतयितृत्व' होता है ; चित्परिणाम जिसका लक्षण [-स्वरूप] है ऐसा उपयोग' होता है: प्राप्त किये हए समस्त [ आत्मिक ] अधिकारोंकी 'शक्तिमात्ररूप 'प्रभुत्व' होता है; समस्त वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप [-निज स्वरूपको रचनेरूप]
ता है: जसका लक्षण [-स्वरूप] है ऐसे सखकी उपलब्धिरूप 'भोक्तत्व' होता है; अतीत अनन्तर [ -अन्तिम ] शरीर प्रमाण अवगाहपरिणामरूप देहप्रमाणपना' होता है; और उपाधिके सम्बन्धसे विविक्त ऐसा आत्यंतिक [ सर्वथा ] 'अमूर्तपना' होता है। [ मुक्त आत्माको]
१। शक्ति = सामर्थ्य; ईशत्व। [मुक्त आत्मा समस्त आत्मिक अधिकारोंको भोगनेमें अर्थात् उनका उपयोग करनेमें स्वयं समर्थ है इसलिये वह प्रभु है।]
२। मुक्त आत्माकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होती है इसलिये उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उनको 'देहप्रमाणपना' कहा जा सकता है।
३। विविक्त = भिन्न; रहित।
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