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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
नीरूपस्वभावत्वान्न हि मूर्तः। निश्चयेन पुद्गल-परिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्मभिः, व्यवहारेण चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभिः कर्मभिः संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति।।२७।।
कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढे लोगस्स अंतमधिगंता। सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं।।२८।।
कर्ममलविप्रमुक्त ऊर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य। स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमनिन्द्रियमनंतम्।। २८ ।।
कर्मों के साथ संयुक्त होनेसे 'कर्मसंयुक्त' है, व्यवहारसे [ असद्भूत व्यवहारनयसे ] चैतन्यपरिणामको अनुरूप पुदगलपरिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होनेसे 'कर्मसंयक्त' है।
__भावार्थ:- पहली २६ गाथाओंमें षड्द्रव्य और पंचास्तिकायका सामान्य निरूपण करके, अब इस २७वीं गाथासे उनका विशेष निरूपण प्रारम्भ किया गया है। उसमें प्रथम, जीवका [आत्माका] निरूपण प्रारम्भ करते हुए इस गाथामें संसारस्थित आत्माको जीव [अर्थात् जीवत्ववाला], चेतयिता, उपयोगलक्षणवाला, प्रभु, कर्ता इत्यादि कहा है। जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोग, प्रभुत्व, कर्तृत्व , इत्यादिका विवरण अगली गाथाओंमें आयेगा।। २७।।
गाथा २८
अन्वयार्थ:- [ कर्ममलविप्रमुक्त:] कर्ममलसे मुक्त आत्मा [ ऊर्ध्वं ] ऊपर [लोकस्य अन्तम् ] लोकके अन्तको [ अधिगम्य ] प्राप्त करके [ सः सर्वज्ञानदर्शी ] वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी [ अनंतम् ] अनन्त [ अनिन्द्रियम् ] अनिन्द्रिय [ सुखम् ] सुखका [ लभते ] अनुभव करता है।
सौ कर्ममळथी मुक्त आत्मा पामीने लोकाग्रने, सर्वज्ञदर्शी ते अनंत अनिंद्रि सुखने अनुभवे। २८ ।
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