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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३६] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो। सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।।१६।। भावा जीवाद्या जीवगुणाश्चेतना चोपयोगः। सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्यायाः बहवः।। १६ ।। अत्र भावगुणपर्यायाः प्रज्ञापिताः। भावा हि जीवादयः षट् पदार्थाः। तेषां गुणाः पर्यायाश्च प्रसिद्धाः। तथापि जीवस्य वक्ष्यमाणोदाहरणप्रसिद्ध्यथर्मभिधीयन्ते। गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षण: सविकल्पनिर्विकल्परूपः शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां गाथा १६ अन्वयार्थ:- [ जीवाद्याः ] जीवादि [ द्रव्य ] वे [ भावाः ] 'भाव' हैं। [ जीवगुणाः ] जीवके गुण [ चेतना च उपयोगः] चेतना तथा उपयोग हैं [च] और [ जीवस्य पर्यायाः ] जीवकी पर्यायें [ सुरनरनारकतिर्यश्चः ] देव-मनुष्य-नारक-तिर्यंचरूप [ बहवः ] अनेक हैं। टीका:- यहा भावों [ द्रव्यों], गुणों और पर्यायें बतलाये हैं। जीवादि छह पदार्थ वे 'भाव' हैं। उनके गुण और पर्यायें प्रसिद्ध हैं, तथापि आगे [अगली गाथामें ] जो उदाहरण देना है उसकी प्रसिद्धिके हेतु जीवके गुणों और पर्यायों कथन किया जाता है: जीवके गुणों ज्ञानानुभूतिस्वरूप शुद्धचेतना तथा कार्यानुभूतिस्वरूप और कर्मफलानुभूतिस्वरूप अशुद्धचेतना है और चैतन्यानुविधायी-परिणामस्वरूप, सविकल्पनिर्विकल्परूप, शुद्धता १। अगली गाथामें जीवकी बात उदाहरणके रूपमें लेना है, इसलिये उस उदाहरणको प्रसिद्ध करने के लिये यहाँ जीवके गुणों और पर्यायोंका कथन किया गया है। २। शुद्धचेतना ज्ञानकी अनुभूतिस्वरूप है और अशुद्धचेतना कर्मकी तथा कर्मफलकी अनुभूतिस्वरूप है। ३। चैतन्य-अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला परिणाम वह उपयोग है। सविकल्प उपयोगको ज्ञान और निर्विकल्प उपयोगको दर्शन कहा जाता है। ज्ञानोपयोगके भेदोंमेंसे मात्र केवज्ञान ही शुद्ध होनेसे सकल [अखण्ड, परिपूर्ण] है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल [खण्डित, अपूर्ण] हैं; दर्शनोपयोगके भेदोंमेसे मात्र केवलदर्शन ही शुद्ध होनेसे सकल है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल हैं। जीवादि सौ छे “भाव,' जीवगुण चेतना उपयोग छे; जीवपर्ययो तिर्यंच-नारक-देव-मनुज अनेक छ। १६ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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