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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[३७ दधानो द्वेधोपयोगश्च। पर्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारकतिर्यमनुष्लक्षणाः परद्रव्यसम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति।।१६।।
मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा। उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो।।१७।।
मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा। उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः।।१७।।
इदं भावनाशाभावोत्पादनिषेधोदाहरणम्।
अशुद्धताके कारण सकलता-विकलता धारण करनेवाला, दो प्रकारका उपयोग है [अर्थात् जीवके *गुणों शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा दो प्रकारके उपयोग हैं ] ।
जीवकी पर्यायें इसप्रकार हैं:-- अगुरुलघुगुणकी हानिवृद्धिसे उत्पन्न पर्यायें शुद्ध पर्यायें हैं और सुत्रमें [-इस गाथामें ] कही हुई, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्यस्वरूप पर्यायें परद्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न होती है इसलिये अशुद्ध पर्यायें हैं।। १६ ।।
गाथा १७
अन्वयार्थ:- [ मनुष्यत्वेन ] मनुष्यपत्वसे [ नष्ट: ] नष्ट हुआ [ देही ] देही [ जीव] [ देवः वा इतर: ] देव अथवा अन्य [भवति ] होता है; [ उभयत्र] उन दोनोंमें [ जीवभाव:] जीवभाव [न नश्यति] नष्ट नहीं होता और [अन्यः ] दूसरा जीवभाव [ न जायते ] उत्पन्न नहीं होता।
टीका:- ‘भावका नाश नहीं होता और अभावका उत्पाद नहीं होता' उसका यह उदाहरण है।
* पर्यायार्थिकनयसे गुण भी परिणामी हैं। [ दखिये, १५ वी गाथाकी टीका।]
मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे; त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे। १७।
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