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[ भगवानश्री कुन्दकुन्द
उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात्, सहावाच्यत्वात्, भङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात्, शून्यावाच्य-त्वात्, अशून्यशून्यावाच्यत्वाच्चेति।।१४।।
भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुणपञ्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ।। १५ ।।
पंचास्तिकायसंग्रह
भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः ।
गुणपर्यायेषु भावा उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति ।। १५ ।।
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पररूपादिसे ] एकही साथ अवाच्य' है, भंगोंके संयोगसे कथन करने पर [५] 'अशून्य और अवाच्य' है, [६]‘शून्य और अवाच्य' है, [७]' अशून्य, शून्य और अवाच्य' है।
भावार्थ:- [१] द्रव्य *स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे 'है'। [२] द्रव्य परचतुष्टयकी अपेक्षासे ' नहीं है'। [३] द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ' है और नहीं है ' । [४] द्रव्य युगपद् स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे 'अवक्तव्य है'। [५] द्रव्य स्वचतुष्टयकी और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे 'है और अवक्तव्य है'। [६] द्रव्य परचतुष्टयकी, और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे 'नहीं और अवक्तव्य है'। [७] द्रव्य स्वचतुष्टयकी, परचतुष्टयकी और युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे 'है, नहीं है और अवक्तव्य है ' । इसप्रकार यहाँ सप्तभंगी कही गई है।। १४ ।।
गाथा १५
अन्वयार्थ:- [ भावस्य ] भावका [ सत्का ] [ नाश: ] नाश [ न अस्ति ] नहीं है [ च एव ] तथा [ अभावस्य ] अभावका [ असत्का ] [ उत्पादः ] उत्पाद [ न अस्ति ] नहीं है; [ भावा: ] भाव [ सत् द्रव्यों ] [ गुणपर्यायषु ] गुणपर्यायोंमें [ उत्पादव्ययान् ] उत्पादव्यय [ प्रकृर्वन्ति ] करते हैं।
*स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको स्वचतुष्टय कहा जाता है । स्वद्रव्य अर्थात् निज गुणपर्यायोंके आधारभूत वस्तु स्वयं; स्वक्षेत्र अर्थात वस्तुका निज विस्तार अर्थात् स्वप्रदेशसमूह; स्वकाल अर्थात् वस्तुकी अपनी वर्तमान पर्याय; स्वभाव अर्थात् निजगुण - स्वशक्ति ।
नहि 'भाव' केरो नाश होय, ' अभाव 'नो उत्पाद ना; 'भावो' करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां । १५ ।
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