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पंचास्तिकायसंग्रह
दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सब्भावपञ्जयाई जं । दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो ।। ९॥ द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत् । द्रव्य तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः ।। ९॥
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४] सर्व पदार्थ सत् है इसलिये महासत्ता ' सर्व पदार्थोंमें स्थित है। व्यक्तिगत पदार्थोंमें स्थित भिन्न–भिन्न व्यक्तिगत सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका भिन्न-भिन्न निश्चित व्यक्तित्व रह सकता है, इसलिये उस-उस पदार्थकी अवान्तरसत्ता उस-उस 'एक पदार्थमें ही स्थित ' है । [५] महासत्ता समस्त वस्तुसमूहके रूपों [ स्वभावों ] सहित है इसलिये वह 'सविश्वरूप' [ सर्वरूपवाली ] है । वस्तुकी सत्ताका [ कथंचित् ] एक रूप हो तभी उस वस्तुका निश्चित एक रूप [ - निश्चित एक स्वभाव ] रह सकता है, इसलिये प्रत्येक वस्तुकी अवान्तरसत्ता निश्चित 'एक रूपवाली' ही है। [६] महासत्ता सर्व पर्यायोंमें स्थित है इसलिये वह 'अनन्तपर्यायमय' है। भिन्न-भिन्न पर्यायोंमें [ कथंचित् ] भिन्न–भिन्न सत्ताएँ हों तभी प्रत्येक पर्याय भिन्न-भिन्न रहकर अनन्त पर्यायें सिद्ध होंगी, नहीं तो पर्यायोंका अनन्तपना ही नहीं रहेगा - एकपना हो जायगा; इसलिये प्रत्येक पर्यायकी अवान्तरसत्ता उस-उस 'एक पर्यायमय' ही है।
[ भगवान श्रीकुन्दकुन्द
इस प्रकार सामान्यविशेषात्मक सत्ता, महासत्तारूप तथा अवान्तरसत्तारूप होनेसे, [१] सत्ता भी है और असत्ता भी है, [२] त्रिलक्षणा भी है और अत्रिलक्षणा भी है, [ ३ ] एक भी है और अनेक भी है, [४] सर्वपदार्थस्थित भी है और एकपदार्थस्थित भी है। [५] सविश्वरूप भी है और एकरूप भी है, [ ६ ] अनंतपर्यायमय भी है और एकपर्यायमय भी है ।। ८ ।।
ते ते विविध सद्भावपर्ययने द्रवे-व्यापे-लहे
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे। ९।
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