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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरुवा अणंतपज्जाया। मंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि ऐक्का।।८।।
सत्ता सर्वपदार्था सविश्वरूपा अनन्तपर्याया। भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा मवत्येका।।८।।
अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्तम्।
अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः सत्त्वम्। न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा विद्यमानमात्रं वस्तु। सर्वथा नित्यस्य वस्तुनस्तत्त्वतः क्रमभुवां भावानामभावात्कुतो विकारवत्त्वम्। सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम्। ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालम्ब्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं चैककालमेव परमार्थतत्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम्। अत एव सत्ताप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकाऽवबोद्धव्या, भावभाववतोः कथंचिदेकस्वरूपत्वात्। सा च त्रिलक्षणस्य
गाथा ८ अन्वयार्थः- [ सत्ता] सत्ता [भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका ] उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, [एका ] एक, [ सर्वपदार्था] सर्वपदार्थस्थित, [ सविश्वरूपा] सविश्वरूप, [अनन्तपर्याया] अनन्तपर्यायमय और [सप्रतिपक्षा] सप्रतिपक्ष [ भवति ] है।
टीकाः- यहाँ अस्तित्वका स्वरूप कहा है।
अस्तित्व अर्थात सत्ता नामक सत्का भाव अर्थात 'सत्त्व।
विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिकरूप होती है। सर्वथा नित्य वस्तुको वास्तवमें क्रमभावी भावोंका अभाव होनेसे विकार [-परिवर्तन, परिणाम] कहाँसे होगा? और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तवमें प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एकप्रवाहपना कहाँसे रहेगा ? इसलिये प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपसे ध्रुव रहती हुई और किन्हीं दो क्रमवर्ती स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई – इसप्रकार परमार्थतः एक ही कालमें तिगुनी [ तीन अंशवाली ] अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु सत् जानना। इसलिये ‘सत्ता' भी
१। सत्त्व सत्पनां; अस्तित्वपना; विद्यमानपना; अस्तित्वका भाव; 'है' ऐसा भाव। २। वस्तु सर्वथा क्षणिक हो तो 'जो पहले देखनेमें [-जाननेमें ] आई थी वही यह वस्तु है' ऐसा ज्ञान नहीं हो
सकता।
सर्वार्थप्राप्त , सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे, सत्ता जनम-लय-ध्रौव्यमय छे, ओक छे, सविपक्ष छ। ८।
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