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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[१९
अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। म्लंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।।७।।
अनयोऽन्यं प्रविशन्ति ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य। मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति।।७।।
अत्र षण्णां द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्तम्।
अत एव तेषां परिणामवत्त्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्तम्। अत एव च न तेषामेकत्वापत्तिर्न च जीवकर्मणोर्व्यवहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति।।७।।
गाथा ७
अन्वयार्थः- [अन्योन्यं प्रविशन्ति ] वे एक-दूसरेमें प्रवेश करते हैं, [अन्योन्यस्य ] अन्योन्य [अवकाशम् ददन्ति ] अवकाश देते हैं, [ मिलन्ति ] परस्पर [क्षीर-नीरवत् ] मिल जाते हैं। [ अपि च] तथापि [ नित्यं] सदा [ स्वकं स्वभावं ] अपने-अपने स्वभावको [ न विजहन्ति ] नहीं छोड़ते।
टीका:- यहाँ छह द्रव्योंको परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी वे प्रतिनियत [-अपने-अपने निश्चित ] स्वरूपसे च्युत नहीं होते ऐसा कहा है। इसलिये [-अपने-अपने स्वभावसे च्युत नहीं होते इसलिये], परिणामवाले होने पर भी वे नित्य हैं-- ऐसा पहले [छठवी गाथामें ] कहा था; और इसलिये वे एकत्वको प्राप्त नहीं होते; और यद्यपि जीव तथा कर्मको व्यवहारनयके कथनसे एकत्व [ कहा जाता ] है तथापि वे [जीव तथा कर्म] एक-दूसरेके स्वरूपको ग्रहण नहीं करते।। ७।।
* संकर मिलन; मिलाप; [अन्योन्य-अवगाहरूप] मिश्रितपना।
अन्योन्य थाय प्रवेश, ओ अन्योन्य दे अवकाशने, अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोड़े न आपस्वभावने।७।
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