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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[२६१
शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः
प्रमादोदयानुवृत्ति-निवर्तिकां क्रियाकाण्डपरिणतिमाहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्त्याऽऽत्मानमात्म-नाऽऽत्मनि संचेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति, ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि संन्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादानितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरूपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयःकर्मानुभूतिनिरुत्सुकाःकेवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विकानन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्द-ब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति।।१७२।।
मग्गप्पभावणटुं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया। भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं ।। १७३।।
शुद्धचैतन्यरूप आत्मतत्त्वमें विश्रांतिके विरचनकी अभिमुख [ उन्मुख ] वर्तते हुए, प्रमादके उदयका अनुसरण करती हुई वृत्तिका निवर्तन करनेवाली [ टालनेवाली ] क्रियाकाण्डपरिणतिको माहात्म्यमेंसे वारते हुए [-शुभ क्रियाकाण्डपरिणति हठ रहित सहजरूपसे भूमिकानुसार वर्तती होने पर भी अंतरंगमें उसे माहात्म्य नहीं देते हुए], अत्यन्त उदासीन वर्तते हुए, यथाशक्ति आत्माको आत्मासे आत्मामें संचेतते [अनुभवते] हुए नित्य-उपयुक्त रहते हैं, वे [-वे महाभाग भगवन्तों], वास्तवमें स्वतत्त्वमें विश्रांतिके अनुसार क्रमश: कर्मका संन्यास करते हुए [-स्वतत्त्वमें स्थिरता होती जाये तदनुसार शुभ भावोंको छोड़ते हुए], अत्यन्त निष्प्रमाद वर्तते हुए, अत्यन्त निष्कंपमूर्ति होनेसे जिन्हें वनस्पतिकी उपमा दी जाती है तथापि जिन्होंने कर्मफलानुभूति अत्यन्त निरस्त [नष्ट ] की है ऐसे , कर्मानुभूतिके प्रति निरुत्सुक वर्तते हुए, केवल [ मात्र ] ज्ञानानुभूतिसे उत्पन्न हुए तात्त्विक आनन्दसे अत्यन्त भरपूर वर्तते हुए, शीघ्र संसारसमुद्रको पार उतरकर, शब्दब्रह्मके शाश्वत फलके [निर्वाणसुखके ] भोक्ता होते हैं।। १७२।।
१। विरचन = विशेषरूपसे रचना; रचना।
में मार्ग-उद्योतार्थ, प्रवचनभक्तिथी प्रेराईने. कडं सर्वप्रवचन-सारभूत 'पंचास्तिसंग्रह ' सूत्रने। १७३।
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