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२६०] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयोरन्यतरानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः
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__[अब निश्चय-व्यवहार दोनोंका 'सुमेल रहे इस प्रकार भूमिकानुसार प्रवर्तन करनेवाले ज्ञानी जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है:
परन्तु जो, अपुनर्भवके [ मोक्षके ] लिये नित्य उद्योग करनेवाले महाभाग भगवन्तों, निश्चयव्यवहारमेंसे किसी एकका ही अवलम्बन नहीं लेनेसे [-केवलनिश्चयावलम्बी या केवलव्यवहारावलम्बी नहीं होनेसे ] अत्यन्त मध्यस्थ वर्तते हुए,
[यहाँ जिन जीवोंको 'व्यवहारसम्यग्दृष्टि कहा है वे उपचारसे सम्यग्दृष्टि हैं ऐसा नहीं समझना। परन्तु वे वास्तवमें सम्यग्दृष्टि हैं ऐसा समझना। उन्हें चारित्र-अपेक्षासे मुख्यत: रागादि विद्यमान होनेसे सराग सम्यकत्ववाले कहकर 'व्यवहारसम्यग्दृष्टि' कहा है। श्री जयसेनाचार्यदेवने स्वयं ही १५०-१५१ वी गाथाकी टीकामें कहा है कि - जब यह जीव आगमभाषासे कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषासे शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त करता है तब प्रथम तो वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियोंके उपशम और क्षयोपशम द्वारा सराग-सम्यग्दृष्टि होता
१। निश्चय-व्यवहारके सुमेलकी स्पष्टताके लिये पृष्ठ २५८का पद टिप्पण देखें।
२। महाभाग = महा पवित्र; महा गणवान; महा भाग्यशाली।
३। मोक्षके लिये नित्य उद्यम करनेवाले महापवित्र भगवंतोंको [-मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको] निरन्तर शुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपका सम्यक् अवलम्बन वर्तता होनेसे उन जीवोंको उस अवलम्बनकी तरतमतानुसार सविकल्प दशामें भूमिकानुसार शुद्धपरिणति तथा शुभपरिणतिका यथोचित सुमेल [ हठ रहित] होता है इसलिये वे जीव इस शास्त्रमें [ २५८ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलनिश्चयावलम्बी कहा है ऐसे केवलनिश्चयावलम्बी नहीं हैं तथा [२५९ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलव्यवहारावलम्बी कहा है ऐसे केवलव्यवहारावलम्बी नहीं हैं।
तथा शुभपरिणतिका यथोचित समेल 1 हात रहित
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