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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २५६ ] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द वारंवारमभिवर्धितोत्साहा, ज्ञानाचरणाय स्वाध्याय-कालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधानाः, सुष्ठु बहुमानमातन्वन्तो, निहवापत्तिं नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः, चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु निवान्तं गृहीतोद्योगा ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्तनिवेशितप्रयत्नाः, तपआचरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्सहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिकरांकुशितस्वान्ता, वीर्याचरणाय कर्म-काण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणाः, कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञान चेतनां ------- हुए बारम्बार उत्साहको बढ़ाते हैं; ज्ञानाचरणके लिये-स्वाध्यायकालका अवलोकन करते हैं, बहु प्रकारसे विनयका विस्तार करते हैं, दुर्धर उपधान करते हैं, भली भाँति बहुमानको प्रसारित करते हैं, निवदोषको अत्यन्त निवारते हैं, अर्थ, व्यंजन और तदुभयकी शुद्धिमें अत्यन्त सावधान रहते हैं; चारित्राचरणके लिये-हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहकी सर्वविरतिरूप पंचमहाव्रतोंमें तल्लीन वृत्तिवाले रहते हैं, सम्यक् योगनिग्रह जिसका लक्षण है [-योगका बराबर निरोध करना जिनका लक्षण है] ऐसी गुप्तियोंमें अत्यन्त उद्योग रखते हैं, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्गरूप समितियोंमें प्रयत्नको अत्यन्त जोड़ते हैं; तपाचरण के लिये-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशमें सतत उत्साहित रहते हैं, प्रायश्चित्त , विनय, वैयावृत्त्य , व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यानरूप परिकर द्वारा निज अंतःकरणको अंकुशित रखते हैं; वीर्याचरणके लिये-कर्मकांडमें सर्व शक्ति द्वारा व्याप्त रहते हैं। ऐसा करते हुए, कर्मचेतनाप्रधानपनेके कारण – यद्यपि अशुभकर्मप्रवृत्तिका उन्होंने अत्यन्त निवारण किया है तथापिशुभकर्मप्रवृत्तिको जिन्होंने बराबर ग्रहण किया है ऐसे वे, सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरसे पार उतरी हुई दर्शनज्ञानचारित्रकी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञानचेतनाको किंचित् भी उत्पन्न नहीं करते हुए, १। तदुभय = उन दोनों [ अर्थात् अर्थ तथा व्यंजन दोनों ] २। परिकर = समूह; सामग्री। ३। व्यापृत = रुके; गुंथे; मशगूल; मग्न। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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