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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २५७
मनागप्यसंभावयन्तः प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति। उक्तञ्च- 'चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति''।
येऽत्र केवलनिश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽर्धमीलित
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बहुत पुण्यके भारसे 'मंथर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा द्वारा दीर्घ कालतक संसारसागरमें भ्रमण करते हैं। कहा भी है कि -चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कावावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति।। [अर्थात् जो चरणपरिणामप्रधान है और स्वसमयरूप परमार्थमें व्यापाररहित हैं, वे चरणपरिणामका सार जो निश्चयशुद्ध [ आत्मा ] उसे नहीं जानते।]
[ अब केवलनिश्चयावलम्बी [ अज्ञानी ] जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है :-]
अब, जो केवलनिश्चयावलम्बी हैं, सकल क्रियाकर्मकाण्डके आडम्बरमें विरक्त बुद्धिवाले वर्तते
१। मंथर = मंद; जड़; सुस्त।
२। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार है: चरणकरणप्रधानाः स्वसमयपरमार्थमुक्तव्यापाराः। चरणकरणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्ति।।
३। श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति-टीकामें व्यवहार-एकान्तका निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया है:
जो कोई जीव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाववाले शुद्धात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गसे निरपेक्ष केवलशुभानुष्ठानरूप व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उसके द्वारा देवलोकादिके क्लेशकी परम्परा प्राप्त करते हुए संसारमें परिभ्रमण करते हैं: किन्तु यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्गको माने और निश्चयमोक्षमार्गका अनुष्ठान करनेकी शक्तिके अभावके कारण निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करें, तो वे सराग सम्यग्दृष्टि हैं और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं। -इस प्रकार व्यवहार-एकान्तके निराकरणकी मुख्यतासे दो वाक्य कहे गये।
[यहाँ जो ‘सराग सम्यग्दृष्टि' जीव कहे उन जीवोंको सम्यग्दर्शन तो यथार्थ ही प्रगट हुआ है परन्तु चारित्र-अपेक्षासे उन्हें मुख्यत: राग विद्यमान होनेसे 'सराग सम्यग्दृष्टि' कहा है ऐसा समझना। और उन्हें जो शुभ अनुष्ठान है वह मात्र उपचारसे ही 'निश्चयसाधक [ निश्चयके साधनभूत]' कहा गया है ऐसा समझना।
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