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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला ] नवपदार्थपूर्वक—मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [२५५ अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेनाऽनवरतं नितरां मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः खिद्यमाना प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितवि चित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डमराचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः कदाचित् किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः, दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः कदाचिदनुकम्पमानाः कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकरा:, उपबृंहण स्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना [अब केवलव्यवहारावलम्बी ( अज्ञानी) जीवोंको प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता है :- ] परन्तु जो केवव्यवहारावलम्बी [ मात्र व्यवहारका अवलम्बन करनेवाले ] हैं वे वास्तवमें 'भिन्नसाध्यसाधनभावके अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए, [१] पुनः पुनः धर्मादिके श्रद्धानरूप अध्यवसानमें उनका चित्त लगता रहनेसे, [२] बहुत श्रुतके [ द्रव्यश्रुतके ] संस्कारोंसे ऊठने वाले विचित्र [ अनेक प्रकारके ] विकल्पोंके जाल द्वारा उनकी चैतन्यवृत्ति चित्र-विचित्र होती है इसलिए और [३] समस्त यति-आचारके समुदायरूप तपमें प्रवर्तनरूप कर्मकाण्डकी धमालमें वे अचलित रहते हैं इसलिए, [१] कभी किसीको [ किसी विषयकी ] रुचि करते हैं, [२] कभी किसीके [ किसी विषयके ] विकल्प करते हैं और [३] कभी कुछ आचरण करते हैं; दर्शनाचरण के लिए—वे कदाचित् प्रशमित होते है, कदाचित् संवेगको प्राप्त होते है, कदाचित् अनुकंपित होते है, कदाचित् आस्तिक्यको धारण करते हैं, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और मूढदृष्टिताके उत्थानको रोकनेके लिए नित्य कटिबद्ध रहते हैं, उपबृंहण, स्थिति - करण, वात्सल्य और प्रभावनाको भाते १। वास्तवमें साध्य और साधन अभिन्न होते हैं। जहाँ साध्य और साधन भिन्न कहे जायें वहाँ 'यह सत्यार्थ निरूपण नहीं है किन्तु व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया है - ऐसा समझना चाहिये। केवलव्यवहारावलम्बी जीव इस बातकी गहराईसे श्रद्धा न करते हुए अर्थात् 'वास्तवमें शुभभावरूप साधनसे ही शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त होगा' ऐसी श्रद्धाका गहराईसे सेवन करते हुए निरन्तर अत्यन्त खेद प्राप्त करते हैं। [ विशेषके लिए २३० वें पृष्ठका पाँचवाँ और २३१ वें पृष्ठका तीसरा तथा चौथा पद टिप्पण देखें । ] " Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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