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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २५४ ] पंचास्तिकायसंग्रह [ भगवानश्रीकुन्दकुन्द न्याय्यपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः, पुनः पुनः दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्त-तोद्यताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्य-साधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वङ्गमलिनवासस मनाङ्गनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहितत्व-रूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्या-त्मनि क्रमेण समुपजात समरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, विश्रान्तिमासूत्रयन्तः साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति।। इव [आत्मामें अधिकार ] शिथिल हो जानेपर अपनेको न्यायमार्गमें प्रवतित करनेके लिए वे प्रचण्ड दण्डनीतिका प्रयोग करते हैं; पुनःपुनः [ अपने आत्माको ] दोषानुसार प्रायश्चित्त देते हुए वे सतत उद्यमवन्त वर्तते हैं; और 'भिन्नविषयवाले श्रद्धान - ज्ञान - चारित्रके द्वारा [ - आत्मासे भिन्न जिसके विषय हैं ऐसे भेदरत्नत्रय द्वारा ] जिसमें संस्कार आरोपित होते जाते हैं ऐसे भिन्नसाध्यसाधनभाववाले अपने आत्मामें - धोबी द्वारा शिलाकी सतह पर पछाड़े जानेवाले, निर्मल जल द्वारा भिगोए जानेवाले और क्षार [ साबुन ] लगाए जानेवाले मलिन वस्त्रकी भाँति-थोड़ी-थोड़ी विशुद्धि प्राप्त करके, उसी अपने आत्माको निश्चयनयसे भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण, दर्शनज्ञानचारित्रका समाहितपना [ अभेदपना ] जिसका रूप है, सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरकी निवृत्तिके कारण [ - अभावके कारण ] जो निस्तरंग परमचैतन्यशाली है तथा जो निर्भर आनन्दसे समृद्ध है ऐसे भगवान आत्मामें विश्रांति रचते हुए [अर्थात् दर्शनज्ञानचारित्रके ऐक्यस्वरूप, निर्विकल्प परमचैतन्यशाली है तथा भरपूर आनन्दयुक्त ऐसे भगवान आत्मामें अपनेको स्थिर करते हुए ], क्रमश: समरसीभाव समुत्पन्न होता जाता है इसलिए परम वीतरागभावको प्राप्त करके साक्षात् मोक्षका अनुभव करते हैं। १। व्यवहार–श्रद्धानज्ञानचारित्रके विषय आत्मासे भिन्न हैं; क्योंकि व्यवहारश्रद्धानका विषय नव पदार्थ है, व्यवहारज्ञानका विषय अंग - पूर्व है और व्यवहारचारित्रका विषय आचारादिसूत्रकथित मुनि - आचार है। २। जिस प्रकार धोबी पाषाणशिला, पानी और साबुन द्वारा मलिन वस्त्रकी शुद्धि करता जाता है, उसी पकार प्राक्पदवीस्थित ज्ञानी जीव भेदरत्नत्रय द्वारा अपने आत्मामें संस्कारको आरोपण करके उसकी थोड़ी-थोड़ी शुद्धि करता जाता है ऐसा व्यवहारनसे कहा जाता है। परमार्थ ऐसा है कि उस भेदरत्नत्रयवाले ज्ञानी जीवको शुभ भावोंके साथ जो शुद्धात्मस्वरूपका आंशिक आलम्बन वर्तता है वही उग्र होते-होते विशेष शुद्धि करता जाता है। इसलिए वास्तवमें तो शुद्धात्मस्वरूकां आलम्बन करना ही शुद्धि प्रगट करनेका साधन है और उस आलम्बनकी उग्रता करना ही शुद्धिकी वृद्धि करनेका साधन है। साथ रहे हुए शुभभावोंको शुद्धिकी वृद्धिका साधन कहना वह तो मात्र उपचारकथन है। शुद्धिकी वृद्धिके उपचरितसाधनपनेका आरोप भी उसी जीवके शुभभावोंमें आ सकता है कि जिस जीवने शुद्धिकी वृद्धिका यथार्थ साधन [ - शुद्धात्मस्वरूपका यथोचित आलम्बन ] प्रगट किया हो । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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