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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [ २४९ यः खलु मौक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसंभावितपरमवैराग्यभूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्ति: पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदाथैः सहाईदादिरुचिरूपां परसमयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान् मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति।। १७०।। अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण। जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।। १७१।। ------- ------- --------- जो जीव वास्तवमें मोक्षके लिये उद्यमी चित्तवाला वर्तता हुआ, अचिंत्य संयमतपभार सम्प्राप्त किया होने पर भी परमवैराग्यभूमिकाका आरोहण करनेमें समर्थ ऐसी 'प्रभुशक्ति उत्पन्न नहीं की होनेसे , ‘धुनकी को चिपकी हुई रूई 'के न्यायसे, नव पदार्थों तथा अर्हतादिकी रुचिरूप [प्रीतिरूप] परसमयप्रवृत्तिका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तवमें साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता किन्तु देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिरूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता है।। १७०।। १। प्रभुशक्ति = प्रबल शक्ति; उग्र शक्ति; प्रचुर शक्ति। [जिस ज्ञानी जीवने परम उदासीनताको प्राप्त करनेमें समर्थ ऐसी प्रभुशक्ति उत्पन्न नहीं की वह ज्ञानी जीव कदाचित् शुद्धात्मभावनाको अनुकूल, जीवादिपदार्थोंका प्रतिपादन करनेवाले आगमोंके प्रति रुचि [प्रीति] करता है, कदाचित् [ जिस प्रकार कोई रामचन्द्रादि पुरुष देशान्तरस्थित सीतादि स्त्री के पाससे आए हुए मनुष्योंको प्रेमसे सुनता है, उनका सन्मानादि करता है और उन्हें दान देता है उसी प्रकार] निर्दोष-परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोंके और गणधरदेव-भरत-सगर-रामपांडवादि महापुरुषोंके चरित्रपुराण शुभ धर्मानुरागसे सुनता है तथा कदाचित् गृहस्थ-अवस्थामें भेदाभेदरत्नत्रयपरिणत आचार्य-उपाध्याय-साधुनके पूजनादि करता है और उन्हें दान देता है -इत्यादि शुभ भाव करता है। इस प्रकार जो ज्ञानी जीव शुभ रागको सर्वथा नहीं छोड़ सकता, वह साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता परन्तु देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराको पाकर फिर चरम देहसे निर्विकल्पसमाधिविधान द्वारा विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले निजशुद्धात्मामें स्थिर होकर उसे [ मोक्षको प्राप्त करता है।] जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य प्रत्ये भक्ति धारी मन विषे, संयम परम सह तप करे, ते जीव पामे स्वर्गने। १७१। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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