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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्त: परेण नियमेन। यः करोति तपःकर्म स सुरलोकं समादत्ते।। १७१।।
अर्हदादिभक्तिमात्ररागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत्।
यः खल्वर्हदादिभक्तिविधेयबुद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितीव्र तपस्तप्यते, स तावन्मात्ररागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं समासाद्य , सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति।।१७१।।
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि। सो तेण वीदरागो भविओ भवसायरं तरदि।।१७२।।
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गाथा १७१
अन्वयार्थ:- [ यः] जो [जीव], [अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्त:] अर्हत, सिद्ध, चैत्य [अर्हतादिकी प्रतिमा ] और प्रवचनके [-शास्त्र] प्रति भक्तियुक्त वर्तता हुआ, [ परेण नियमेन ] परम संयम सहित [ तपःकर्म ] तपकर्म [ –तपरूप कार्य ] [ करोति ] करता है, [ सः ] वह [ सुरलोकं ] देवलोकको [ समादत्ते ] सम्प्राप्त करता है।
टीका:- यह, मात्र अर्हतादिकी भक्ति जितने रागसे उत्पन्न होनेवाला जो साक्षात् मोक्षका अंतराय उसका प्रकाशन है।
जो [ जीव] वास्तवमें अर्हतादिकी भक्तिके आधीन बुद्धिवाला वर्तता हुआ 'परमसंयमप्रधान अतितीव्र तप तपता है, वह [जीव], मात्र उतने रागरूप क्लेशसे जिसका निज अंतःकरण कलंकित [ –मलिन] है ऐसा वर्तता हुआ , विषयविषवृक्षके आमोदसे जहाँ अन्तरंग [-अंतःकरण] मोहित होता है ऐसे स्वर्गलोकको- जो कि साक्षात् मोक्षको अन्तरायभूत है उसे-सम्प्राप्त करके, सुचिरकाल पर्यंत [-बहुत लम्बे काल तक] रागरूपी अंगारोंसे दह्यमान हुआ अन्तरमें संतप्त [ -दुःखी, व्यथित ] होता है।। १७१।।
१। परमसंयमप्रधान = उत्कृष्ट संयम जिसमें मुख्य हो ऐसा। २। आमोद = [१] सुगंध; [२] मोज।
तेथी न करवो राग जरीये कयांय पण मोक्षेच्छुओ; वीतराग थईने ओ रीते ते भव्य भवसागर तरे। १७२।
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