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२४८]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स। दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स।।१७०।।
सपदार्थं तीर्थकरमभिगतबुद्धेः सूत्ररोचिनः। दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य।। १७०।।
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भावद्योतनमेतत्।
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गाथा १७०
अन्वयार्थः- [ संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य ] संयमतपसंयुक्त होने पर भी, [ सपदार्थ तीर्थकरम् ] नव पदार्थों तथा तीर्थंकरके प्रति [ अभिगतबुद्धेः ] जिसकी बुद्धिका झुकाव वर्तता है और [ सूत्ररोचिनः ] सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि [प्रीति ] वर्तती है, उस जीवको [ निर्वाणं] निर्वाण [ दूरतरम् ] दूरतर [ विशेष दूर ] है।
टीकाः- यहाँ, अर्हतादिकी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्तिमें साक्षात् मोक्षहेतुपनेका अभाव होने पर भी परम्परासे मोक्षहेतुपनेका 'सद्भाव दर्शाया है।
१। वास्तवमें तो ऐसा है कि -ज्ञानीको शुद्धाशुद्धरूप मिश्र पर्यायमें जो भक्ति-आदिरूप शुभ अंश वर्तता है वह तो मात्र देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराका ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानीको जो [ मंदशुद्धिरूप] शुद्ध अंश परिणमित होता है वह संवरनिर्जराका तथा [ उतने अंशमें] मोक्षका हेतु है। वास्तवमें ऐसा होने पर भी, शुद्ध अंशमें स्थित संवर-निर्जरा-मोक्षहेतुत्वका आरोप उसके साथके भक्ति-आदिरूप शुभ अंशमें करके उन शुभ भावोंको देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा सहित मोक्षप्राप्तिके हेतुभूत कहा गया है। यह कथन आरोपसे [ उपचारसे] किया गया है ऐसा समझना। [ ऐसा कथंचित् मोक्षहेतुत्वका आरोप भी ज्ञानीको ही वर्तनेवाले भक्ति-आदिरूप शुभ भावोंमें किया जा सकता है। अज्ञानीके तो शुद्धिका अंशमात्र भी परिणमनमें नहीं होनेसे यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट ही नहीं हुआ है-विद्यमान ही नहीं है तो फिर वहाँ उसके भक्तिआदिरूप शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जाय?]
संयम तथा तपयुक्तने पण दूरतर निर्वाण छे, सूत्रो, पदार्थो , जिनवरो प्रति चित्तमा रुचि जो रहे। १७०।
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