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२४४] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते। ततः सर्वत्र रागकणिकाऽपि परिहरणीया परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति।।१६६।।
जस्स हिदएणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो। सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।। १६७।।
यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः। स न विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि।।१६७।।
स्वसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत्। यस्य खलु रागरेणुकणिकाऽपि जीवति हृदये न नाम स समस्तसिद्धान्तसिन्धुपारगोऽपि निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते।
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पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तवमें सकल कर्मका क्षय नहीं करता। इसलिये सर्वत्र रागकी कणिका भी परिहरनेयोग्य है, क्योंकि वह परसमयप्रवृत्तिका कारण है।। १६६ ।।
गाथा १६७
अन्वयार्थ:- [ यस्य ] जिसे [ परद्रव्ये ] परद्रव्यके प्रति [अणुमात्र: वा] अणुमात्र भी [ लेशमात्र भी [ राग:] राग [ हृदये विद्यते] हृदयमें वर्तता है [ सः] वह, [ सर्वागमधरः अपि] भले सर्वआगमधर हो तथापि, [ स्वकस्य समयं न विजानाति] स्वकीय समयको नहीं जानता [-अनुभव नहीं करता।
___टीका:- यहाँ, स्वसमयकी उपलब्धिके अभावका, राग एक हेतु है ऐसा प्रकाशित किया है [अर्थात् स्वसमयकी प्राप्तिके अभावका राग ही एक कारण है ऐसा यहाँ दर्शाया है। जिसे रागरेणुकी कणिका भी हृदयमें जीवित है वह, भले समस्त सिद्धांतसागरका पारंगत हो तथापि, 'निरुपरागशुद्धस्वरूप स्वसमयको वास्तवमें नहीं चेतता [-अनुभव नहीं करता।
१। निरुपराग-शुद्धस्वरूप = उपरागरहित [-निर्विकार ] शुद्ध जिसका स्वरूप है ऐसा।
अणुमात्र जेने हृदयमां परद्रव्य प्रत्ये राग छे, हो सर्वआगमधर भले जाणे नहीं स्वक-समयने। १६७।
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