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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २४३
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।। १६६ ।।
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः। बध्नाति पुण्यं बहुशो न खलु स कर्मक्षयं करोति।। १६६ ।।
उक्तशुद्धसंप्रयोगस्य कथञ्चिद्वन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासोऽयम्। अर्हदादिभक्तिसंपन्न: कथञ्चिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोग-तामजहत् बहुशः
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गाथा १६६ अन्वयार्थ:- [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अर्हत, सिद्ध , चैत्य [-अर्हतादिकी प्रतिमा ], प्रवचन [-शास्त्र], मुनिगण और ज्ञानके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव [ बहुशः पुण्यं बध्नाति ] बहुत पुण्य बांधता है, [ न खलु सः कर्मक्षयं करोति ] परन्तु वास्तवमें वह कर्मोका क्षय नहीं करता।
टीका:- यहाँ, पूर्वोक्त शुद्धसम्प्रयोगको कथंचित् बंधहेतुपना होनेसे उसका मोक्षमार्गपना निरस्त किया है [ अर्थात् ज्ञानीको वर्तता हुआ शुद्धसम्प्रयोग निश्चयसे बंधहेतुभूत होनेके कारण वह मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। अर्हतादिके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव, कथंचित् “शुद्धसम्प्रयोगवाला' होने पर भी, “रागलव जीवित [ विद्यमान ] होनेसे ‘शुभोपयोगीपने' को नहीं छोड़ता हुआ , बहुत
१। कथंचित् = किसी प्रकार; किसी अपेक्षासे [अर्थात् निश्चयनयकी अपेक्षासे]। [ ज्ञानीको वर्तते हुए शुद्धसम्प्रयोगको कदाचित् व्यवहारसे भले मोक्षका परम्पराहेतु कहा जाय, किन्तु निश्चयसे तो वह बंधहेतु ही है
क्योंकि अशुद्धिरूप अंश है।] २। निरस्त करना = खंडित करना; निकाल देना; निषिद्ध करना। ३। सिद्धिके निमित्तभूत ऐसे जो अर्हन्तादि उनके प्रति भक्तिभावको पहले शुद्धसम्प्रयोग कहा गया है। उसमें 'शुद्ध'
शब्द होने पर भी ‘शुभ' उपयोगरूप रागभाव है। [ 'शुभ' ऐसे अर्थमें जिस प्रकार ‘विशुद्ध' शब्द कदाचित् प्रयोग होता है उसी प्रकार यहाँ 'शुद्ध' शब्दका प्रयोग हुआ है।] ४। रागलव = किंचित् राग; अल्प राग।
जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य-मुनिगण-ज्ञाननी भक्ति करे, ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे। १६६ ।
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