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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २४२] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत्। अर्हदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिभावानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्रयोगः। अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते। अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरणवृत्तिरितरो जन इति।।१६५।।। टीका:- यह, सूक्ष्म परसमयके स्वरूपका कथन है। सिद्धिके साधनभूत ऐसे अर्हतादि भगवन्तोंके प्रति भक्तिभावसे 'अनुरंजित चित्तवृत्ति वह यहाँ 'शुद्धसम्प्रयोग' है। अब, अज्ञानलवके आवेशसे यदि ज्ञानवान भी 'उस शुद्धसम्प्रयोगसे मोक्ष होता है ' ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें [शुद्धसम्प्रयोगमें ] प्रवर्ते, तो तब तक वह भी 'रागलवके सद्भावके कारण "परसमयरत' कहलाता है। तो फिर निरंकश रागरूप क्लेशसे कलंकित ऐसी अंतरंग वृत्तिवाला इतर जन क्या परसमयरत नहीं कहलाएगा ? [अवश्य कहलाएगा ही] ।। १६५।। १। अनुरंजित = अनुरक्त; रागवाली; सराग। २। अज्ञानलव = किन्चित् अज्ञान; अल्प अज्ञान। ३। रागलव = किन्चित् राग; अल्प राग। ४। परसमयरत = परसमयमें रत; परसमयस्थित; परसमयकी ओर झुकाववाला; परसमयमें आसक्त। ५। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण है: कोई पुरुष निर्विकार-शुद्धात्मभावनास्वरूप परमोपेक्षासंयममें स्थित रहना चाहता है, परन्तु उसमें स्थित रहनेको अशक्त वर्तता हुआ कामक्रोधादि अशुभ परिणामके वंचनार्थ अथवा संसारस्थितिके छेदनार्थ जब पंचपरमेष्ठीके प्रति गुणस्तवनादि भक्ति करता है, तब वह सूक्ष्म परसमयरूपसे परिणत वर्तता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि है; और यदि वह पुरुष शुद्धात्मभावनामें समर्थ होने पर भी उसे [ शुद्धात्मभावनाको] छोड़कर 'शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है ऐसा एकान्त माने, तो वह स्थूल परसमयरूप परिणाम द्वारा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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