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कहानजैनशास्त्रमाला]
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नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायमधिद्धताऽर्हदादिविषयोऽपि
क्रमेण
ततः स्वसमयप्रसिद्ध्यर्थं रागरेणुरपसारणीय इति।।१६७।।
धरिदुं जस्स ण सक्कं चित्तुब्भामं विणा दु अप्पाणं। रोधो तस्स ण विज्जदि सुहासुहकदस्स कम्मस्स।।१६८।।
धर्तुं यस्य न शक्यम् चित्तोद्भ्रामं विना त्वात्मानम्। रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १६८।।
रागलवमूलदोषपरंपराख्यानमेतत्। इह खल्वर्हदादिभक्तिरपि न रागानुवृत्तिमन्तरेण भवति। रागाद्यनुवृत्तौ च सत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तं कथंचनापि धारयितुं शक्यते।
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इसलिये, 'धुनकीसे चिपकी हुई रूई 'का न्याय लागु होनेसे , जीवको स्वसमयकी प्रसिद्धिके हेतु अर्हतादि-विषयक भी रागरेणु [-अर्हतादिके ओरकी भी रागरज ] क्रमशः दूर करनेयोग्य है।। १६७।।
गाथा १६८
अन्वयार्थ:- [ यस्य ] जो [ चित्तोद्भामं विना तु] [ रागनके सद्भावके कारण] चित्तके भ्रमण रहित [ आत्मानम् ] अपनेको [धर्तुम् न शक्यम् ] नहीं रख सकता, [तस्य ] उसे [ शुभाशुभकृतस्य कर्मणः] शुभाशुभ कर्मका [ रोधः न विद्यते ] निरोध नहीं है।
टीका:- यह, रागलवमूलक दोषपरम्पराका निरूपण है [ अर्थात् अल्प राग जिसका मूल है ऐसी दोषोंकी संततिका यहाँ कथन है। यहाँ [इस लोकमें ] वास्तवमें अर्हतादिके ओरकी भक्ति भी रागपरिणतिके बिना नहीं होती। रागादिपरिणति होने पर, आत्मा 'बुद्धिप्रसार रहित [-चित्तके भ्रमणसे रहित ] अपनेको किसी प्रकार नहीं रख सकता ;
१। धुनकीसे चिपकी हुई थोड़ी सी भी २। जिस प्रकार रूई, धुननेके कार्यमें विघ्न करती है, उसी प्रकार थोड़ा सा भी राग स्वसमयकी उपलब्धिरूप कार्यमें विघ्न करता है।
मनना भ्रमणथी रहित जे राखी शके नहि आत्मने, शुभ वा अशुभ कर्मो तणो नहि रोध छे ते जीवने। १६८ ।
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