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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन ___ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। तत्र धर्मादीनां द्रव्यपदार्थविकल्पवतां तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभावं भावन्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं, तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृतौ सत्यामङ्गपूर्वगतार्थपरिच्छित्तिर्ज्ञानम्, आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या-इत्येष: स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्ग: कार्तस्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचिद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावात्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि, निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यत इति।।१६०।।
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सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सो मोक्षमार्ग है। वहाँ [छह ] द्रव्यरूप और [ नव] पदार्थरूप जिनके भेद हैं ऐसे धर्मादिके तत्त्वार्थश्रद्धानरूप भाव [-धर्मास्तिकायादिकी तत्त्वार्थप्रतीतिरूप भाव] जिसका स्वभाव है ऐसा, 'श्रद्धान' नामका भावविशेष सो सम्यक्त्व; तत्त्वार्थश्रद्धानके सद्भावमें अंगपूर्वगत पदार्थों का अवबोधन [-जानना ] सो ज्ञान; आचारादि सूत्रों द्वारा कहे गए अनेकविध मुनि-आचारोंके समस्त समुदायरूप तपमें चेष्टा [-प्रवर्तन ] सो चारित्र; - ऐसा यह, स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित , भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [-व्यवहारनयकी अपेक्षासे] अनुसरण किया जानेवाला मोक्षमार्ग. सवर्णपाषाणको लगाई जानेवाली प्रदीप्त अनिकी भाँति 'समाहित अंतरंगवाले जीवको [अर्थात् ] जिसका अंतरंग एकाग्र-समाधिप्राप्त है ऐसे जीवको] पद-पद पर परम रम्य ऐसी उपरकी शुद्ध भूमिकाओंमें अभिन्न विश्रांति [-अभेदरूप स्थिरता] उत्पन्न करता हुआ - यद्यपि उत्तम सुवर्णकी भाँति शुद्ध जीव कथंचित् भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण स्वयं [अपने आप] शुद्ध स्वभावसे परिणमित होता है तथापि-निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
भावार्थ:- जिसे अंतरंगमें शुद्धिका अंश परिणमित हुआ है उस जीवको तत्त्वार्थ-श्रद्धान, अंगपूर्वगत ज्ञान और मुनि-आचारमें प्रवर्तनरूप 'व्यवहारमोक्षमार्ग विशेष-विशेष शुद्धिका
१। समाहित=एकाग्र; एकताको प्राप्त; अभेदताको प्राप्त; छिन्नभिन्नता रहित; समाधिप्राप्त; शुद्ध; प्रशांत।
२। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थको भी व्यवहारमोक्षमार्ग कहा है। वहाँ व्यवहारमोक्षमार्गके स्वरूपका निम्नानुसार वर्णन किया है:- 'वीतरागसर्वज्ञप्रणीत जीवादिपदार्थो सम्बन्धी सम्यक श्रद्धान तथा ज्ञान दोनों, गृहस्थको और तपोधनको समान होते हैं; चारित्र, तपोधनोंको आचारादि चरणग्रंथोंमें विहित किये हुए मार्गानुसार प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत-पंचसमिति-त्रिगुप्ति-षडावश्यकादिरूप होता है और गृहस्थोंको उपासकाध्ययनग्रंथमें विहित किये हुए मार्गके अनुसार पंचमगुणस्थानयोग्य दान-शीलपूजा-उपवासादिरूप अथवा दार्शनिक-व्रतिकादि ग्यारह स्थानरूप [ग्यारह प्रतिमारूप] होता है; इस प्रकार व्यवहारमोक्षमार्गका लक्षण है।
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