SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३२] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चेट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।।१६०।। धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतम्। चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति।।१६० ।। निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम्। गाथा १६० अन्वयार्थ:- [धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम् ] धर्मास्तिकायादिका श्रद्धान सो सम्यक्त्व [ अङ्गपूर्वगतम् ज्ञानम् ] अंगपूर्वसम्बन्धी ज्ञान सो ज्ञान और [ तपसि चेष्टा चर्या ] तपमें चेष्टा [ –प्रवृत्ति ] सो चारित्र; [इति ] इस प्रकार [ व्यवहारः मोक्षमार्गः ] व्यवहारमोक्षमार्ग है। टीका:- निश्चयमोक्षमार्गके साधनरूपसे, पूर्वोदिष्ट [१०७ वी गाथामें उल्लिखित] व्यवहारमोक्षमार्गका यह निर्देश है। [ यहाँ एक उदाहरण लिया जाता है: साध्य-साधन सम्बन्धी सत्यार्थ निरूपण इस प्रकार है कि 'छठवें गुणस्थानमें वर्तती हुई आंशिक शुद्धि सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' अब, 'छठवें गुणस्थानमें कैसी अथवा कितनी शुद्धि होती है'- इस बातको भी साथ ही साथ समझना हो तो विस्तारसे ऐसा निरूपण किया जाता है कि 'जिस शुद्धिके सद्भावमें, उसके साथ-साथ महाव्रतादिके शुभविकल्प हठ विना सहजरूपसे प्रवर्तमान हो वह छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' ऐसे लम्बे कथनके बदले, ऐसा कहा जाए कि 'छठवें गुणस्थानमें प्रवर्तमान महाव्रतादिके शुभ विकल्प सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है,' तो वह उपचरित निरूपण है। ऐसे उपचरित निरूपणमेंसे ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि 'महाव्रतादिके शुभ विकल्प नहीं किन्तु उनके द्वारा जिस छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि बताना था वह शूद्धि वास्तवमें सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।'] धर्मादिनी श्रद्धा सुदृग, पूर्वांगबोध सुबोध छे, तपमांहि चेष्टा चरण-ओक व्यवहारमुक्तिमार्ग छे। १६०। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy