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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३४] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द णिच्छयणएण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।। १६१।। निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिस्तैः समाहितः खलु यः आत्मा। न करोति किंचिदप्यन्यन्न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति।। १६१।। व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम्। ----------------------------------------------------------------------------- व्यवहारसाधन बनता हुआ, यद्यपि निर्विकल्पशुद्धभावपरिणत जीवको परमार्थसे तो उत्तम सुवर्णकी भाँति अभिन्नसाध्यसाधनभावके कारण स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होता है तथापि, व्यवहारनयसे निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है। [अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिका अंतरंग लेशमात्र भी समाहित नहीं होनेसे अर्थात् उसे[ द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके अज्ञानके कारण] शुद्धिका अंश भी परिणमित नहीं होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं है।।] १६० ।। गाथा १६१ अन्वयार्थ:- [ यः आत्मा] जो आत्मा [ तै: त्रिभिः खलु समाहितः] इन तीन द्वारा वास्तवमें समाहित होता हुआ [अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र द्वारा वास्तवमें एकाग्र-अभेद होता हुआ ] [अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [ न करोति न मुञ्चति ] करता नहीं है या छोड़ता नहीं है, [ सः ] वह [ निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [ मोक्षमार्गः इति भणितः ] — मोक्षमार्ग' कहा गया है। टीका:- व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे, निश्चयमोक्षमार्गका यह कथन है। जे जीव दर्शनज्ञानचरण वडे समाहित होईने, छोडे-ग्रहे नहि अन्य कंईपण, निश्चये शिवमार्ग छे। १६१। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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