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गाथा
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| विषय
गाथा | विषय कर्मको जीवभावका कर्तापना होनेके
| कर्मविमुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्व| सम्बन्धमें पूर्वपक्ष
५९ - गुणका व्याख्यान | ५९ वीं गाथामें कहे हुए पूर्वपक्षके
| जीवके भेदोंका कथन समाधानरूप सिद्धान्त
६० | बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षडविधि | निश्चनय से जीव को अपने भावों का |
गमन और मुक्त जीवको स्वाभाविक | कर्तापना और पुद्गलकर्मोंका
ऐसा एक ऊर्ध्वगमन | अकर्तापना निश्चनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म
|* पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान और जीव स्वयं अपने-अपने रूपके । पुद्गलद्रव्यके भेद कर्ता हैं- तत्सम्बन्धी निरूपण
| पुदगलद्रव्यके भेदोंका वर्णन यदि कर्म जीवको अनयोन्य अकर्तापना | स्कन्धोंमें 'पुद्गल' ऐसा जो व्यवहार | हो, तो अन्यका दिया हुआ फल अन्य
है उसका समर्थन | भोगे, ऐसा प्रसंग आयेगा, -ऐसा दोष | परमाणु की व्याख्या बतलाकर पूर्वपक्षका निरूपण
६३ परमाणु भिन्न-भिन्न जातिके होनेका कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें व्याप्त
खण्डन हैं; इसलिये जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना | शद्ब पुद्गलस्कन्धपर्याय होनेका कथन लाये ही, वे विद्यमान हैं---तत्सम्बन्धी परमाणुके एक प्रदेशीपनेका कथन कथन
| ६४ परमाणुद्रव्यमें गुण-पर्याय वर्तनेका अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्त्पत्ति
कथन किस प्रकार होती है उसका कथन | ६५ | सर्व पुद्गलभेदोंका उपसंहार कर्मोंकी विचित्रता अन्य द्वारा नहीं की
*धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्मजाती ----तत्सम्बन्धी कथन
। ६६ द्रव्यास्तिकायका व्याख्यान निश्चयसे जीव और कर्मको निज-निज धर्मास्तिकायका स्वरूप रूपका ही कर्तापना होने पर भी,
धर्मास्तिकायका शेष स्वरूप व्यवहारसे जीवको कर्म द्वारा दिये गये धर्मास्तिकायके गतिहेतत्व सम्बन्धी फल का उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं __ दृष्टान्त
होता--- तत्सम्बन्धी कथन | ६७ | अधर्मास्तिकायका स्वरूप कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्याख्यान का । धर्म और अधर्मके सदभावकी सिद्धिके उपसंहार
६८ । लिये हेतु कर्मसंयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण | | धर्म और अधर्म गति और स्थितिके का व्याख्यान
हेतु होने पर भी उनकी अत्यन्त । उदासीनता
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