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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २१८] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्। आस्रवहेतुर्हि जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावः। तदभावो भवति ज्ञानिनः। तदभावे भवत्यासवभावाभावः। आस्रवभावाभावे भवति कर्माभावः। कर्माभावेन भवति सार्वज्ञं सर्वदर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतमनन्तसुखत्वञ्चेति। स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः। कथमिति चेत्। भावः खल्वत्र विवक्षितः कर्मावृत्तचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः। स खलु संसारिणोऽनादिमोहनीयकर्मोदयानुवृत्तिवशादशुद्धो द्रव्यकर्मासवहेतुः। स तु ज्ञानिनो मोहरागद्वेषानुवृत्तिरूपेण प्रहीयते। ततोऽस्य आस्रवभावो निरुध्यते। ततो निरुद्धाञवभावस्यास्य मोहक्षयेणात्यन्तनिर्विकारमनादिमुद्रितानन्तचैतन्यवीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्त- मतिवाह्य युगपञ्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षेयण कथञ्चिच कूटस्थज्ञानत्वमवाप्य ज्ञप्तिक्रियारूपे क्रमप्रवृत्त्यभावाद्भावकर्म विनश्यति। आस्रवका हेतु वास्तवमें जीवका मोहरागद्वेषरूप भाव है। ज्ञानीको उसका अभाव होता है। उसका अभाव होने पर आस्रवभावका अभाव होता है। आस्रवभावका अभाव होने पर कर्मका अभाव होता है। कर्मका अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, इन्द्रियव्यापारातीत, अनन्त सुख होता है। यह जीवन्मुक्ति नामका भावमोक्ष है। 'किस प्रकार ?' ऐसा प्रश्न किया जाय तो निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण है: यहाँ जो 'भाव' विवक्षित है वह कर्मावृत [कर्मसे आवृत हुए] चैतन्यकी क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञाप्तिक्रियारूप है। वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव ] वास्तवमें संसारीको अनादि कालसे मोहनीयकर्मके उदयका अनुसरण करती हुई परिणतिके कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है। परन्तु वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव ] ज्ञानीको मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे हानिको प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रवभावको निरोध होता है। इसलिये जिसे आस्रवभावका निरोध हुआ है ऐसे उस ज्ञानीको मोहके क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होनेसे, जिसे अनादि कालसे अनन्त चैतन्य और [अनन्त ] वीर्य मुंद गया है ऐसा वह ज्ञानी [क्षीणमोह गुणस्थानमें ] शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूपसे अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेसे कथंचित् 'कूटस्थ ज्ञानको प्राप्त करता है और इस प्रकार उसे ज्ञप्तिक्रियाके रूपमें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होनेसे भावकर्मका विनाश होता है। १। इन्द्रियव्यापारातीत इन्द्रियव्यापार रहित। २। जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति; देह होने पर भी मुक्ति। ३। विवक्षित=कथन करना है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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